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________________ कितने गहरे-कितने उदार •पं० लक्ष्मणप्रसाद 'प्रशान्त' काव्यतीर्थ, सागर ___ इस छोटे-से दीपकने बुन्देलखण्डकी धरती पर किसी छोटी-सी कुटियामें जन्म लिया, किन्तु अपने पुरुषार्थ और आत्मशक्तिके बलसे, ज्ञानकी अद्भुत तेजपूर्ण क्षमतासे उसने जैन जगतके हर क्षेत्रको आलोकित किया। वह भले ही नामसे दरबारी हो किन्तु अब उनका द्वार विद्वान्-दरबारियोंसे अलंकृत रहता है। हृदय ऐसा, जैसे-नवनीत । वाणीमें-फूलोंकी नरमीको मात देनेकी अद्भुत क्षमता । सहजता और सरलता जिसके उभय पाश्वोंमें अंग-रक्षककी तरह चलती हैं। इतना लघु शरीर किन्तु लगनकी अट एवं असीम निष्ठाने उन्हें उत्तरोत्तर ऊपर-ऊपर उठाया है। कौन जानता था कि साधारणसे विद्यालयमें काम करनेवाला यह व्यक्ति एकदिन भारतके प्रसिद्धतम हिन्द विश्वविद्यालयके रीडर पदको अलंकृत करेगा । अपनी कलमका धनी ज्ञानकी अनवरत साधनाके प्रमाणस्वरूप जैन साहित्यके भण्डारको जो अमूल्य कृतियाँ दी है वह उनको अमरत्व प्रदान करनेवाली औषधियाँ हैं । समाजसेवा, साहित्यसेवा और ज्ञानदानमें अनवरत लीन कोठियाजी अब पं० दरबारीलालजीके नामसे नहीं, किन्तु डॉ० कोठियाके नामसे जाने जाते हैं। स्नेह, वात्सल्य और उदारताको मूर्ति डॉ० कोठिया जैन समाजकी ही नहीं, अखिल विद्वत्समाजकी निधि है। ___ उनका हृदय कोमल एवं विचार अतिशय उदार है । मुझे स्मरण है सागरमें विद्वत्परिषद्को कार्यकारिणीकी बैठक आयोजित की गई थी। तिथि ठीक याद नहीं, किन्तु यह बैठक सेठ भगवानदासजी बिड़ी लोंकी धर्मशालामें उन्हीं की अध्यक्षतामें चल रही थी। विद्वत्परिषदके वे अध्यक्ष थे । विचारणीय विषयोंमें एक विषय दिवंगत आदरणीय डॉ० नेमिचन्द्रजी ज्योतिषाचार्यकी कृति "तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा" पर पुरस्कार-राशि निश्चित कर-घोषित करना था । हमारे दुर्भाग्यसे उक्त कृतिको समाप्त करनेके बाद ही डॉ० नेमिचन्द्रजी इस लोकको छोड़कर परलोक सिधार गये थे। उनके नामकी चर्चा आते ही, मैंने देखा-कोठियाजीकी आँखें डबडबा आई। गला भर आया। हृदयमें जैसे दुःखका सागर उमड़ पड़ा हो । किन्तु अपने आवेगको रोककर स्वस्थ चित्त हो वह विषयकी गहराई और देय पुरस्कारराशिपर विचार-विमर्श करने लगे। विद्वत्परिषदके मन्त्रीजीने कहा कितनी राशि दी जाना चाहिए। डॉ० कोठियाजीके मुंहसे सहसा निकला २१०००) रु०। मन्त्रीजी कुछ विचलितसे हो गए। उन्होंने बुदबुदाते हुए कहा-इतनी राशि कैसे दी जा सकती है? डॉ० कोठियाके शब्द थे,-'जिसने अपना जीवन ही उक्त कृतिके सृजनमें लगा दिया, क्या उसकी जिन्दगीसे यह राशि अधिक मूल्यवान है। मेरे पास होता तो मेरी दृष्टि में यह राशि भी अपर्याप्त होती। हंसकर बोले, आप चिन्ता न करें-हम व्यवस्था कर लेंगे । हमें अपनी जेबसे नहीं देना है, फिर भी हमारे मनमें तो उदारता होना ही चाहिए। विद्वान्की कद्र विद्वान् न करेगा तो कौन करेगा।" ड.. कोठियाजीके उक्त शब्द आज भी मेरे स्मृति-पटलसे यथावत् झाँक रहे हैं । लगता है डॉ० कोठियाजी जैसी निश्छल उदारता सभीमें नहीं होती । वे जैसे विद्वान हैं, वैसे ही उदार भी है। ज्ञानका मान उन्हें छू भी नहीं गया है। छोटा हो या बड़ा, सभीसे-बड़े ही स्नेहसे मिलते हैं । कुशलक्षेम पूंछते है और किसी व्यक्तिके संकटकी स्थितिका आभास मिलते ही उसके प्रतीकारका उपाय भी करते हैं। श्रवणबेलगोलामें गत वर्ष डॉ० कोठियाके सम्पर्कमें मुझे जितने क्षण रहनेका अवसर मिला, मुझे लगा कि कोई चिरपरिचित जनम-जनमका साथी हमें मिल गया है। उनकी आत्मीयता एवं वात्सल्य भावने मुझे उनके बहुत करीब पहुँचाया। अन्य विद्वानोंमें ऐसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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