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________________ गाड़ी करके हीराबागकी धर्मशाला आये। वहाँ स्नान, देवदर्शन, पूजन और भोजन आदि दैनिक क्रियाओंसे निवृत्त हुए। वहाँ श्री १०८ मनि नेमिसागरजीका चतुर्मास हो रहा था। उनके दर्शन किये । शामको उसी दिन कुंथलगिरि जानेके लिये स्टेशनपर आये। मद्रास एक्सप्रेससे सवार होकर ता० २५ अगस्तको प्रातः ७ बजे कुडुवाड़ी पहुँचे । वहाँ पहुँचनेपर पता चला कि एडसी-कुंथलगिरि जानेवाली गाड़ी डेढ़ घंटे पूर्व छूट चुकी है । अतः कुर्दुवाड़ीमें स्नान, देवदर्शन, पूजन आदि करके मोटर बस द्वारा वार्सी होते हुए उसी दिन मध्याह्नमें ३।२० पर श्रीकुंथलगिरि पहुँचे । कुंथलगिरिका सुन्दर पहाड़ २-३ मील पहलेसे दिखने लगता है । यहाँसे देशभूषण और कुलभूषणने घोर उपसर्ग सहनकर सिद्धपद प्राप्त किया था । मोटरसे उतरते ही मालूम हुआ कि महाराज दर्शन दे रहे हैं और प्रतिदिन मध्याह्नमें ३ से ३।। बजे दर्शन देकर गफामें चले जाते हैं। अतः सामानको वहीं छोड तीव्र वेगसे महाराजके दर्शनों के लिये पहाड़पर पहुँचे। उस दिन महाराजने ३-४५ बजे तक जनता को दर्शन दिये । महाराज सबको अपने दाहिने हाथ और पिछीको उठाकर आशीर्वाद दे रहे थे। उस समयका दृश्य बड़ा द्रावक एवं अनुपम था । अब मनमें यह अभिलाषा हई कि महाराजके निकट पहुँचकर निकटसे दर्शन व वार्ता करें तथा महाराज नमिसागरजीका लिखा पत्र उनके चरणोंमें अर्पित करें। सुयोगसे पं० सुमेरुचन्द्रजी दिवाकर सिवनीने हमें तत्क्षण देखकर निकट बुला लिया और सेठ रावजी पंढारकर सोलापुर तथा श्री १०५ लक्ष्मीसेन भट्टारक कोल्हापुरसे हमारा परिचय कराया एवं आचार्य महाराजके चरणोंमें पहुँचाने के लिए उनसे कहा । ये दोनों महानुभाव महाराजकी परिचर्या में सदा रहनेवालोंमें प्रमुख थे। एक घंटे बाद पौने पाँच बजे माननीय भट्टारकजी हमें महाराजके पास गुफामें ले गये । सौम्यमद्रामें स्थित महाराजको त्रिवार नमोऽस्तु करते हुए निवेदन किया कि 'महाराज! आपके सल्लेखनाव्रत तथा परिचर्या में दिल्लीकी ओरसे, जहाँ आपने सन १९३० में ससंघ चतुर्मास किया था, महाराज नमिसागरजीने हमें भेजा है। महाराज नमिसागरजीने आपके चरणोंमें एक पत्र भी दिया है।' आचार्यश्रीने कहा-'ठीक है, तुम अच्छे आये।' और पत्रको पढ़ने के लिये इङ्गित किया। हमने १० मिनट तक पत्र पढ़कर सुनाया। महाराजने हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया । महाराजकी शान्त मुद्राके दर्शनकर प्रमुदित होते हुए गुफासे बाहर आये। बादमें पहाड़से नीचे आकर डेरा तलाश करते हुए दिल्लीके अनेक सज्जनोंसे भेंट हुई । उनसे मालूम हुआ कि वे उसी दिन वापिस जा रहे हैं । अतः हम उनके डेरेमें ठहर गये । यहाँ उल्लेख योग्य है कि वर्षाका समय, स्थानकी असुविधा और खाद्य-सामग्रीका अभाव होते हुए भी भक्तजन प्रतिदिन आ रहे थे और सब कष्टोंको सह रहे थे । २९ अगस्त तक हम महाराजके पादमूलमें रहे और भाषण, तत्त्वचर्चा, विचार-गोष्ठी आदि दैनिक कार्यक्रमोंमें शामिल होते रहे । तथा सल्लेखना-महोत्सवके प्रमख संयोजक सेठ बालचन्द देवचन्दजी शहा सोलापुर-बम्बईके आग्रह एवं प्रेरणासे 'सल्लेखनाके महत्त्व' तथा 'आचार्यश्रीके आदर्श-मार्ग' जैसे सामयिक वषयोंपर भाषण भी देते रहे । स्थान और भोजनके कष्टने इच्छा न होते हए भी कुंथलगिरि और आचार्यश्रीका पादमूल हमें छोड़नेके लिए बाध्य किया और इस लिये दिल्ली लौट जानेका हमने दुखपूर्वक निश्चय किया। अतः महाराजके दर्शनकर और उनकी आज्ञा लेकर मोटर-बसपर आ गये । उल्लेखनीय है कि हमें दिवाकरजीगे प्रेरणा की थी कि शेडवाल (जि० वेलगांव)में आचार्य महाराजके बड़े भाई और १७ वर्ष पहले आचार्यश्रीसे दीक्षित, जिनकी ९४ वर्षकी अवस्था है, मुनि वर्धमानसागरजी तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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