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________________ प्रातःस्मरणीय पूज्य श्रीगणेशप्रसादजी वर्णीने इस प्रान्तमें कई वर्षों तक पैदल यात्रा करके भ्रमण किया और समाज में फैली रूढियों तथा अज्ञानताको दूर करने का अदम्य प्रयास किया था। उन्होंने अनुभव किया था कि ये दोनों ऐसे धुन हैं जो अनाजको भूसा बना देते हैं-समाज उनसे खोखला हो जाता है। 'मेरी जीवन-गाथामें' उन्होंने ऐसी बोसियों रूढ़ियों और अज्ञानताका उल्लेख किया है, जिनसे समाजमें पार्थक्य और अनैक्यका साम्राज्य जड़ जमा लेता है और उसे शन्य बना देता है। जैन धर्म तीर्थंकरोंका धर्म है और तीर्थंकर समस्त जगत्का कल्याण करने वाले होते हैं। इसीसे जैनधर्मके सिद्धान्तोंमें विश्वकल्याणकी क्षमता है। जैन धर्म किसीका भी अहित नहीं चाहता। और इसी लिए प्रतिदिन जिन-पूजाके अन्तमें यह भावना की जाती है क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवत् बलवान् धार्मिको भूमिपाल: काले काले सम्यग वर्षत मघवा व्याधयो यान्त नाशम । दुभिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मास्म भूज्जीवलोके जैनेन्द्रं धर्मचकं प्रभवतु सततं सर्बसौख्यप्रदायि ।। अर्थात् समस्त देशोंकी प्रजाओंका भला हो, उनका पालक राजा बलवान् और धार्मिक हो, यथासमय उचित वर्षा हो, कोई किसी प्रकारकी व्याधि (शारीरिक कष्ट) न हो, देशमें कहीं अकाल न पड़े, कहीं भी चोरियाँ-डकैतियाँ न हों और न एक क्षणके लिए भी कहीं हैजा, प्लेग जैसी दैवी विपत्तियाँ आयें । सभीको सुख देने वाला वीतराग सन्तोंका धर्म निरन्तर प्रवृत्त रहे । यह है जैनधर्म के अनुयायी प्रत्येक जैनकी कामना । 'जियो और जीने दो', 'रहो और रहने दो' जैसे अहिंसक सिद्धान्तोंके प्रवर्तक तथा अनुपालक हम जैन अपनेको निश्चय ही भाग्यशाली मान सकते हैं। लेकिन जहाँ अहिंसा दूसरोंके हितोंका घात न करनेको शिक्षा देती है वहाँ वह अपने हितोंकी रक्षाका भी ध्यान दिलाती है । हममें इतना बल, साहस, विवेक और ज्ञान हो, जिससे हम अपने कर्तव्योंका बोध कर सकें और अपने अधिकारोंको सुरक्षित रख सकें। इसके लिए मेरे निम्न सुझाव हैं : १. बालकों को स्वस्थ और बलिष्ठ बनाया जाये । माता-पिताको इस ओर आरम्भसे ध्यान रखना आवश्यक है । इसके लिए प्रत्येक जगह खेल-कूद और व्यायामके सामूहिक साधनोंको व्यवस्था की जाय । आज जैन लोग कमजोर और डरपोक समझे जाते हैं और इससे उनके साथ अन्याय होता रहता है । २. प्रत्येक बालकको आरम्भसे धार्मिक शिक्षा दी जाये और इसके लिए हर जगह सम्मिलित धर्मशिक्षाकी व्यवस्था की जाय । ३. बालकोंकी तरह बालिकाओंको भी शुरूसे शिक्षा दी जाय, ताकि समाजका एक अङ्ग शिक्षा-हीन न रहे। ४. प्रतिसप्ताह या प्रतिपक्ष बालकोंकी एक सभाका आयोजन किया जाय, जिसमें उन्हें उनके सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों के साथ देशसेवाका बोध कराया जाय। ५. जो बालक-बालिकाएँ तीव्र बुद्धि और होनहार हों, उन्हें ऊँची शिक्षाके लिए बाहर भेजा जाय तथा ऐसे बालकोंकी आर्थिक सहायता की जाय। ६. प्रौढ़ोंमें यदि कोई साक्षर न हों तो उन्हें साक्षर बनाया जाय और आजके प्रकाशमें उन्हें उच्च उद्योगों, व्यवसायों और धंधोके करनेकी प्रेरणा की जाये। ७. समाजमें कोई भाई गरीबीके अभिशापके पीड़ित हों तो सम्पन्न भाई उन्हें मदद करें और इसे वे परोपकार या साधर्मी वात्सल्य जैसा ही पुण्य-कार्य समझें। -४३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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