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________________ सबसे पुराने वि० सं० १२१३ के लेख (७३) में भट्टारक श्रीमाणिक्यदेव और गुण्यदेवका, मध्यकालीन वि० सं० १५४८ के लेख (९७) में भ० श्रीजिनचन्द्र देवका और अन्तिम वि० सं० १६४२, वि० सं० १६८८ के लेखों (११४, ९५) में क्रमशः भ० धर्मकीर्तिदेव, भ० शीलसूत्रदेव, ज्ञानसूत्रदेव तथा भ० जगन्द्रषेणके नामोल्लेख है । अन्य और भी कितने ही भट्टारकोंके इनमें नाम दिसे हुए हैं। ४. चौथी बात यह कि कुन्दकुन्दान्वय, मूलसंघ, बलात्कारगण, सरस्वतीगच्छ, काष्ठासंघ आदि संध-गण-गच्छादिका उल्लेख है, जिनसे भट्टारकोंकी यहाँ कई परम्पराओंका होना ज्ञात होता है। ५. पांचवीं बात यह कि इन लेखों में कई नगरों और ग्रामोंका भी उल्लेख है। जैसे वाणपुर (ले० १, ८७, ८९), महिषणपुर (ले० १००), मदनेशसागरपुर (ले० १), आनन्दपुर (ले० १), वसुहाटिका (ले० १), ग्राम अहारमेंथे (अहार-ले० ९१) आदि । इससे मालूम पड़ता है कि ये सभी स्थान इस क्षेत्रसे प्रभावित थे और वहाँ के भाई यहाँ आकर प्रतिष्ठाएँ कराते थे। ६. छठी बात यह कि वि० सं० १२०७ और वि० सं० १२१३ के लेखों (नं० ८७, ८९) में गृहपत्यन्वय (गहोई जाति) के एक ऐसे गोत्रका उल्लेख है जो आजकल परवार जाति में है और वह है कोच्छल्ल गोत्र । इस गोत्र वाले वाणपुर (वानपुर) में रहते थे। क्या यह गोत्र दोनों जातियोंमें है ?, यह विचारणीय है । यह भो विद्वानोंके लिए विचारयोग्य है कि इन समस्त उपलब्ध लेखोंमें इस प्रान्तकी शताब्दियोंसे सम्पन्न, शिक्षित, धार्मिक और प्रभावशाली परवार जातिका उल्लेख अवश्य होना चाहिए था, जिसका इनमें अभाव मनको कौंच रहा है । मेरा विचार है कि इन लेखोंमें उसका उल्लेख है और उसके द्वारा कई मन्दिरों एवं मूर्तियोंकी प्रतिष्ठाएं हुई हैं । वह है 'पौरपाटान्वय', जो इसी जातिका मूल नाम जान पड़ता है और उक्त नाम उसीका अपभ्रंश प्रतीत होता है । जैसे गृहपत्यन्वयका नाम गहोई हो गया है। यह 'पौरपाटान्वय' पद्मावती पुरवाल जातिका भो सूचक नहीं है, क्योंकि उसका सूचक 'पुरवाडान्वय' है जो अलग़से इन लेखोंमें विद्यमान है । इस सम्बन्धमें विशेषज्ञोंको अवश्य प्रकाश डालना चाहिए। ७. सातवीं बात यह है कि इन लेखोंमें प्रतिष्ठा कराने वाली अनेक धार्मिक महिआओंके भी नाम उल्लिखित हैं । आयिका जयश्री, रतनश्री आदि व्रती महिलाओंके अतिरिक्त सिवदे, सावनी, मालती, पदमा, मदना, प्रभा आदि कितनी ही श्राविकाओं के भी नाम उपलब्ध हैं । और भी कितनी ही बातें हैं जो इन लेखोंका सूक्ष्म अध्ययन किये जानेपर प्रकाशमें आ सकती हैं। हमारा वर्तमान और भावी आप अपने पूर्वजोंके गौरवपूर्ण और यशस्वी कार्योंसे अपने शानदार अतीतको जान चुके हैं और उनपर गर्व भी कर सकते हैं । परन्तु हमें यह भी देखना है कि हम उनकी इस बहूमूल्य सम्पत्तिको कितनी सुरक्षा और अभिवृद्धि कर सके और कर रहे हैं ? सुयोग्य पुत्र वही कहलाता है जो अपनी पैतृक सम्पत्तिकी न केवल रक्षा करता है अपितु उसे बढ़ाता भी है। आज हमारे सामने प्रश्न है कि हम अपनी सांस्कृतिक सम्पत्तिकी सुरक्षा किस प्रकार करें और उसे कैसे बढ़ायें, ताकि वह सर्वका कल्याण करे ? कोई भी समाज या देश अपने शानदार अतीतपर चिरकाल तक निर्भर एवं जीवित नहीं रह सकता। यदि केवल अतीतकी गुण-गाथा ही गायी जाती रहे और अपने वर्तमानको न सम्हाला जाय तथा भावीके लिए पुरुषार्थ न किया जाय तो समय आनेपर हमारे ही उत्तराधिकारी हमें अयोग्य और नालायक बतायेंगे । सांस्कृतिक भण्डार भी रिक्त हो जायेगा । अतः उल्लिखित प्रश्नपर हमें गम्भीरतासे विचार करना चाहिए । हमारे प्रदेशमें सांस्कृतिक सम्पत्ति प्रायः सर्वत्र विखरी पड़ी है। पपौरा, देवगढ़, खजुराहा आदि दर्जनों स्थान उसके उदाहरण हैं। -४३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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