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________________ पहँचानेके लिए आरम्भमें दर्शन-शास्त्रका विमर्श आवश्यक है। उसके विना उसकी नींव मजबूत नहीं हो सकती। यह भी हमें नहीं भूलना है कि लक्ष्यको समझने और पाने के लिए उसकी ओर ध्यान और प्रवृत्ति रखना नितान्त आवश्यक है। दर्शन-शास्त्रको तो सहस्रोंबार ही नहीं, कोठि-कोटि बार भी पढ़ा-सुना है फिर भी लक्ष्यको नहीं पा पाये । तात्पर्य यह कि दर्शन-शास्त्र और अध्यात्म-शास्त्र दोनोंका चिन्तन जीवन-शुद्धिके लिए परमाश्वक है । इनमें से एककी भी उपेक्षा करनेपर हमारी वही क्षति होगी, जिसे आचार्य अमृतचन्द्रने निम्न गाथाके उद्धरणपूर्वक बतलाया है जइ जिणमयं पवज्जह तो मा ववहार-णिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्च ।। -आत्मख्याति, स० सा०, गा० १२। 'यदि जिन-शासनकी स्थिति चाहते हो, तो व्यवहार और निश्चय दोनोंको मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहारके छोड़ देने पर धर्मतीर्थका और निश्चयके छोड़नेसे तत्त्व (अध्यात्म) का विनाश हो जायेगा।' यह सार्थ चेतावनी ध्यातव्य है । स्वामी अमृतचन्द्रने उभयनयके अविरोधमें ही समयसारकी उपलब्धिका निर्देश किया है उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाङ्के जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः । सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्च रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ॥४॥ 'उभयनयके विरोधको दूर करनेवाले 'स्यात्' पदसे अंकित जिन-शासनमें जो ज्ञानी स्वयं निष्ठ है वे अनव-नवीन नहीं, एकान्त पक्षसे अखण्डित और अत्यन्त उत्कृष्ट ज्ञानस्वरूप समयसारको शीध्र देख (पा) ही लेते हैं।' अमृतचन्द्रसे तीनसौ वर्ष पूर्व भट्ट अकलङ्कदेवने ऋषभको आदि लेकर महावीर पर्यन्त चौबीसों तीर्थकरोंको धर्मतीर्थकर्ता और स्याद्वादी कहकर उन्हें विनम्रभावसे नमस्कार किया तथा उससे स्वात्मोपलब्धिको अभिलाषा की है। जैसाकि भाषणके आरम्भमें किये गये मङ्गलाचरणसे, जो उन्हींके लघीयस्त्रयका मङ्गलश्लोक है, स्पष्ट है । इससे हम सहज ही जान सकते हैं कि स्याद्वाद तीर्थकर-वाणी है-उन्हींकी वह देन है। वह किसी आचार्य या विद्वान्का आविष्कार नहीं है। वह एक तथ्य और सत्य है, जिसे इंकारा नहीं जा सकता। निश्चयनयसे आत्माका प्रतिपादन करते समय उस परद्रव्यका भी विश्लेषण करना आवश्यक है, जिससे उसे मुक्त करना है । यदि बद्ध परद्रव्यका विवेचन, जो षट्खण्डागमादि आगमग्रन्थोंमें उपलब्ध है, न किया जाय और केवल आत्माका ही कथन किया जाय, तो जैन-दर्शनके आत्म-प्रतिपादनमें और उपनिषदोंके आत्मप्रतिपादनमें कोई अन्तर नहीं रहेगा। एक बार न्यायालङ्कार पं० वंशीधरजीने कहा था कि एक वेदान्ती विद्वान्ने गुरुजीसे प्रश्न किया था कि आपके अध्यात्ममें और वेदान्तके अध्यात्ममें कोई अन्तर नहीं है ? गुरुजीने उत्तर दिया था कि जैन दर्शनमें आत्माको सदा शुद्ध नहीं माना, संसारावस्थामें अशुद्ध और मुक्तावस्थामें शुद्ध दोनों माना गया है। पर वेदान्तमें उसे सदा शुद्ध स्वीकार किया है । जिस मायाकी उसपर छाया है वह मिथ्या है । लेकिन जैन दर्शन में आत्मा जिस पुद्गलसे बद्ध, एतावता अशुद्ध है वह एक वास्तविक द्रव्य है। इससे संयुक्त होनेसे आत्मामें विजातीय परिणमन होता है । यह विजातीय परिणमन ही उसकी अशुद्धि है । इस अशुद्धिका जैन दर्शनमें -४३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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