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________________ विद्वान्-सेनानियोंने आर्यसमाजके साथ शास्त्रार्थ करके जैनधर्मके सिद्धान्तोंकी रक्षा ही नहीं की, स्वामी कर्मानन्दजी जैसे आर्यसमाजी महाशास्त्रार्थी विद्वान्की आस्थाको जैनधर्ममें परिणत भी किया था। आज भी कुछ सैद्धान्तिक मतभेदको समस्याएँ हैं, जिनका होना अस्वाभाविक नहीं है । आचार्योतकमें सैद्धान्तिक मतभेद रहा है। आचार्य वीरसेनने ऐसे अनेक आचार्य-मतभेदोंका धवलामें समुल्लेख किया है । किन्तु दुर्भाग्यसे आज कुछ खिचाव पाया जाता है । वह नहीं होना चाहिए । वाणी और लेखनी दोनोंमें संयम वांछनीय है। वीतरागकथामें असंयमका स्थान तो है ही नहीं। जब हम अपनी शास्त्र-सम्मत बातको दूसरेके गलेमें उतारनेका प्रयास करें तो आग्रह और आग्रहसे चिपटे रोष, अहंकार एवं असद्भावसे मुक्त होकर ही उसको चर्चा करें। दोनों पक्ष स्याद्वादी हैं। उन्हें निरपेक्ष आग्रह तो होना ही नहीं चाहिए । यह गौरव और प्रसन्नताकी बात है कि ये दोनों पक्ष विद्वत्परिषदमें समाहित हैं और दोनों ही उसका समादर करते हैं। हमारा उनसे नम्र निवेदन है कि वे विद्वत्परिषदका जिसप्रकार गौरव रखकर आदर करते हैं उसी प्रकार वे समग्र श्रुतकी उपादेयताका भी गौरवके साथ सम्मान करें। श्रुत चार अनुयोगों-प्रथमानुयोग, द्रव्यानुयोग, करणानुयोग और चरणानुयोग-में विभक्त है। समन्तभद्रस्वामीने इनका समानरूपमें विवेचन किया है और चारोंकी आस्था-भक्तिको सम्यग्ज्ञानका तथा सम्यग्ज्ञानको मक्तिका कारण बतलाया है। ऐसी स्थितिमें अनयोगविशेषपर बल देकर दुसरे अनयोगोंकी उपेक्षा या अनादेयता नहीं ही होनी चाहिए। यह बात अलग है कि अमुक अनुयोगको अपेक्षासे विवेचन करनेपर उसकी प्रधानता हो जाय और अन्यकी अप्रधानता । पर उनकी उपेक्षा न की जाय-विवेचनमें उन्हे भी स्थान मिलना चाहिए । इसीलिए ज्ञेयतत्त्वको समझनेके लिए प्रमाणके अतिरिक्त द्रव्याथिक-पर्यायाथिक नयों और निक्षेपोंका तथा उपादेयको ग्रहण करनेके लिए व्यवहार और निश्चय नयोंका आगममें प्रतिपादन है । प्रथमको दर्शन-शास्त्रका और दूसरेको अध्यात्मशास्त्रका प्रतिपादन कहा गया है । महर्षि कुन्दकुन्दने इन दोनों शास्त्रोंका निरूपण किया है। उनके पंचास्तिकाय, अष्टपाहुड और प्रवचनसार मुख्यतः दर्शनशास्त्रके ग्रन्थ है तथा नियमसार एवं समयसार अध्यात्मशास्त्रके । द्वादशांग श्रुत इन दोनोंका समुच्चय है। दर्शनशास्त्र जहाँ साधन है वहाँ अध्यात्मशास्त्र साध्य है और साध्यकी उपलब्धि बिना साधन के सम्भव नहीं। हाँ, साध्यके उपलब्ध हो जानेपर साधनका परित्याग या गौणता हो जाय, यह अलग बात है। अग्निज्ञान हो जानेपर धूमज्ञान अनावश्यक हो ही जाता है । पर अग्निज्ञानके लिए धमज्ञानकी अनिवार्यता अपरिहार्य है। जैनधर्म वीतराग-विज्ञान धर्म है, इसमें जरा भी सन्देह नहीं। किन्तु वह अपने इस नामसे लक्ष्यनिर्देशभरकी अभिव्यक्ति करता है। उसमें लक्ष्य-प्राप्तिके उपकरणोंका समावेश नहीं है, ऐसा न कहा जा सकता है और न माना जा सकता है। किसी ग्रन्थका नाम 'मोक्षशास्त्र' है । वह केवल मोक्षका ही प्रतिपादक नहीं होता। उसमें उसके विरोधी-अविरोधी सभी आवश्यक ज्ञेय और उपादेय तत्त्वोंका विवेचन होता है। स्वयं 'समयसार' में शुद्ध आत्माका प्रतिपादन करनेके लिए ग्रन्थकार कुन्दकुन्दमहाराजने बन्ध, आस्रव, संबर, निर्जरा आदिका भी निरूपण किया है। इन्हीं बन्धादिका विस्तृत एवं सूक्ष्म विवेचन 'षट्खण्डागम' में आचार्य भूतबली-पुष्पदन्तने और 'कषायप्राभृत' में आचार्य गुणधरने किया है । तथा इन्हींके आधारसे गोम्मटसारादि ग्रन्थ रचे गये हैं। धर्मका आधार मुमुक्ष और सदगृहस्थ दोनों हैं तथा सद्गृहस्थोंके लिए संस्कृति और तत्त्वज्ञान आवश्यक हैं। और इन दोनोंको स्थितिके णिए वाङ्मय, तीर्थ, मन्दिर, मूर्तियाँ, कला, पुरातत्त्व और इतिहास अनिवार्य हैं । इनके विना समाजको कल्पना और समाजके बिना धर्मकी स्थिति सम्भव ही नहीं। मुमुक्षुधर्म भी गृहस्थधर्मपर उसी प्रकार आधारित है जिस प्रकार खम्भों पर प्रासाद निर्भर है । मुमुक्षुको मुमुक्षुतक -४३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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