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________________ २. समाधान - हाँ, प्रमाण संग्रहभाष्य अथवा प्रमाणसंग्रहालंकार के उल्लेख मिलते हैं । स्वयं सिद्धिविनिश्चयटीकाकारने सिद्धिविनिश्चयटीका में उसके अनेक जगह उल्लेख किये हैं और उसमें विशेष जानने तथा कथन करने की सूचनाएँ की हैं। यथा १. ' इति चचितं प्रमाण संग्रहभाष्ये' - *सि० वि० टी० लि० प० १२ | २. ' इत्युक्तं प्रमाणसंग्रहालंकारे' - सि० लि० प० १९ । ३. शेषमत्र प्रमाण संग्रह भाष्यात्प्रत्येयम्' - सि० प० ३९२ । ४. प्रपंचस्तु नेहोक्तो ग्रंथगौरवात् प्रमाणसंग्रहभाष्याज्ज्ञेयः - सि० लि० प० ९२१ । ५. ' प्रमाण संग्रहभाष्ये निरस्तम्' - सि० लि० प० ११०३ । ६. 'दोषो रागादिर्व्याख्यातः प्रमाणसंग्रह भाष्ये' - सि० लि० प० १२२२ । इन असंदिग्ध उल्लेखोंसे 'प्रमाण संग्रहभाष्य' अथवा 'प्रमाणसंग्रहालंकार' की अस्तित्वविषयक विद्वद्अनुश्रुतिको जहाँ पोषण मिलता है वहाँ उसकी महत्ता, अपूर्वता और बृहत्ता भी प्रकट होती है । ऐसा अपूर्वग्रन्थ, मालूम नहीं इस समय मौजूद है अथवा नष्ट हो गया है ? यदि नष्ट नहीं हुआ और किसी लायब्ररीमें मौजूद है तो उसका अनुसन्धान होना चाहिये । कितने खेदकी बात है कि हमारी लापरवाही से हमारे विशाल साहित्योद्यानमेंसे ऐसे-ऐसे सुन्दर और सुगन्धित ग्रन्थ- प्रसून हमारी नज़रोंसे ओझल हो गये । यदि हम मालियोंने अपने इस विशाल बागकी जागरूक होकर रक्षा की होती तो वह आज कितना हरा-भरा दिखता और लोग उसे देखकर जैन-साहित्योद्यानपर कितने मुग्ध और प्रसन्न होते । विद्वानोंको ऐसे ग्रन्थोंका पता लगानेका पूरा उद्योग करना चाहिये । ३. शंका - गोम्मटसार जीवकाण्ड और धवलामें जो नित्यनिगोद और इतर निगोदके लक्षण पाये जाते हैं क्या उनसे भी प्राचीन उनके लक्षण मिलते हैं ? ३. समाधान — हाँ, मिलते हैं । तत्त्वार्थवार्तिक में अकलङ्कदेवने उनके निम्न प्रकार लक्षण दिये हैं— 'त्रिष्वपि कालेषु त्रसभावयोग्या ये न भवन्ति ते नित्यनिगोताः, त्रसभावमवाप्ता अवाप्स्यन्ति चये तेऽनित्यनिगोता: । - त० वा० पृ० १०० । अर्थात् जो तीनों कालोंमें भी त्रसभावके योग्य नहीं हैं वे नित्यनिगोत हैं और जो त्रसभावको प्राप्त हुए हैं तथा प्राप्त होंगे वे अनित्यनिगोत हैं । ४. शंका – 'संजद' पदकी चर्चाके समय आपने 'संजद पदके सम्बन्धमें अकलङ्कदेवका महत्त्वपूर्ण अभिमत' लेखमें यह बतलाया था कि अकलङ्कदेवने तत्त्वार्थवार्तिक के इस प्रकरणमें षट्खण्डागमके सूत्रोंका प्रायः अनुवाद दिया हैं । इसपर कुछ विद्वानोंका कहना था कि अकलङ्कदेवने तत्त्वार्थवार्तिक में षट्खण्डागमका उपयोग किया ही नहीं । क्या उनका यह कहना ठीक है ? यदि है तब आपने तत्त्वार्थवात्तिक में षट्खण्डागमके सूत्रोंका अनुवाद कैसे बतलाया ? ४. समाधान - हम आपको ऐसे अनेक प्रमाण नीचे देते हैं जिनसे आप और वे विद्वान् यह माननेको बाध्य होंगे कि अकलङ्कदेवने तत्त्वार्थवात्तिकमे षट्खण्डागमका खूब उपयोग किया है । यथा (१) एवं हि समयोऽवस्थितः सत्प्ररूपणायां कायानुवादे - "त्रसा द्वीन्द्रियादारभ्य आ अयोगकेवलिन इति" । - तत्त्वा० पृ० ८८ । १. वीर - सेवामन्दिर में जो सिद्धिविनिश्चयटीकाको लिखित प्रति मौजूद है उसीके आधारसे पत्रों की संख्या डाली गई है । Jain Education International - ४०५ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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