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________________ है' और लिखा है कि 'सर्वथा एकान्तके त्यागसे जो 'किंचित्' ( कथंचित् ) का विधान है वह स्याद्वाद है ।' (क) धर्मकीर्तिने समन्तभद्रके इस स्याद्वाद - लक्षणकी बड़े आवेगके साथ समीक्षा की है । उनके 'किंचित् के विधान – स्याद्वादको अयुक्त, अश्लील और आकुल 'प्रलाप' कहा है ।' ज्ञातव्य है कि आगमों में 'सिया पज्जत्ता, सिया अपज्जत्ता', 'गोयमा ! जीवा सिय सासया, सिय असासया' जैसे निरूपणोंमें दो भंगों तथा कुन्दकुन्दके पंचास्तिकाय में 'सिय अस्थि णत्थि उहयं - इस गाथा (१४) के द्वारा गिनाये गये सात भंगों के नाम तो पाये जाते हैं । पर स्याद्वादकी उनमें कोई परिभाषा नहीं मिलती । समन्तभद्रकी आप्तमीमांसा में ही प्रथमतः उसकी परिभाषा और विस्तृत विवेचन मिलते हैं । धर्मकीर्तिने उक्त खण्डन समन्तभद्रका ही किया है, यह स्पष्ट ज्ञात होता | धर्मकीर्तिका 'तदप्येकान्त सम्भवात् ' पद भी आकस्मिक नहीं है, जिसके द्वारा उन्होंने सर्वथा एकान्तके त्यागसे होनेवाले किंचित् (कथंचित्) के विधान – स्याद्वाद (अनेकान्त ) में भी एकान्तकी सम्भावना करके उसका - अनेकान्तका खण्डन किया है । (ख) इसके सिवाय धर्मकीर्तिने समन्तभद्रकी उस मान्यताका भी खण्डन किया है, जिसे उन्होंने 'सदेव सर्वं को नेच्छेत्' (का० १५) आदि कथन द्वारा स्थापित किया है । वह सान्यता है सभी वस्तुओंको सद्-असद्, एक-अनेक आदि रूपसे उभयात्मक ( अनेकान्तात्मक) प्रतिपादन करना । धर्मकीर्ति इसका भी खण्डन करते हुए कहते हैं कि 'सको उभयरूप माननेपर उनमें कोई भेद नहीं रहेगा । फलतः जिसे 'दही खा' कहा, वह ऊँटको खानेके लिए क्यों नहीं दौड़ता ? जब सभी पदार्थ सभी रूप हैं तो उनके वाचक शब्द और बोधक ज्ञान भी भिन्न-भिन्न नहीं हो सकते । ' अकलंक द्वारा जवाब द्वारा किया गया अपने पूर्वज समन्तभद्रका यह खण्डन भी अकलंकको सह्य नहीं हुआ और उनके उपर्युक्त दोनों आक्षेपोंका जवाब बड़ी तेजस्विता के साथ उन्होंने दिया है । ६ प्रथम आक्षेपका उत्तर १. स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात्किवृत्तचिद्विधिः । सप्तभंगनयापेक्षो २. भूतबली - पुष्पदन्त, षट् खं० १।१।७९ । ३. सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं । दव्वं सप्तभंग खु ४. सर्वस्योभयरूपत्वे हेयादेयविशेषकः ।। आप्तमी०, का० १०५ । चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रं नाभिधावति ।। - प्रमाणा वा० १- १८३ । ५. कथंचित्ते सदेवेष्टं कथंचिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा ॥ ४९ आसवसे संभवदि ॥ - पंचास्ति०, गा० १४ । तद्विशेषनिराकृतेः । सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ।। - देवागम, का० १४, १५ । ६. ( क ) ज्ञात्वा विज्ञप्तिमात्रं परमपि च बहिर्भासि भावप्रवादम् । चक्रे लोकानुरोधात् पुनरपि सकलं नेति तत्त्वं प्रपेदे ॥ न ज्ञाता तस्य तस्मिन् न च फलमपरं ज्ञायते नापि किचित् । इत्यश्लीलं प्रमत्तः प्रलपति जड़धीराकुलं व्याकुलाप्तः ॥ त्या० वि० १-१६१ । Jain Education International • ३८५ - 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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