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________________ कारिकाका सृजन किया है । पहली (५९वीं) कारिकाके द्वारा उन्होंने प्रकट किया है कि जिस प्रकार घट, मुकुट और स्वर्णके इच्छुकोंको उनके नाश, उत्पाद और स्थिति में क्रमशः शोक, हर्ष और माध्यस्थ्य भाव होता है और इसलिए स्वर्ण वस्तु व्यय, उत्पाद और स्थिति इन तीन रूप है, उसी प्रकार विश्वकी सभी वस्तुएँ त्रयात्मक हैं । दूसरी (६० वीं) कारिकाके द्वारा बतलाया है कि जैसे दुग्धव्रती, दूध ही ग्रहण करता है, दही नहीं लेता और दहीका व्रत रखनेवाला दही ही लेता है, दूध नहीं लेता है तथा दूध और दही दोनों का त्यागी दोनों को ही ग्रहण नहीं करता और इस तरह गोरस उत्पाद, व्यय और ध्रुवता तीनोंसे युक्त है, उसी तरह अखिल विश्व ( तत्त्व ) त्रयात्मक है । कुमारिलने भी समन्तभद्रकी लौकिक उदाहरण वाली कारिका (५९) के आधारपर अपनी नयी ढाई कारिकायें रची हैं और समन्तभद्रकी ही तरह उनके द्वारा वस्तुको त्रयात्मक सिद्ध किया है। उनकी इन कारिकाओं में समन्तभद्रकी कारिका ५९ का केवल बिम्ब प्रतिविम्बभाव ही नहीं है, अपितु उनकी शब्दावली, शैली और विचारसरणि भी उनमें समाहित है । समन्तभद्रने जिस बातको अतिसंक्षेपमें एक कारिका (५९) में कहा है, उसीको कुमारिलने ढाई कारिकाओंमें प्रतिपादन किया हैं । वस्तुतः विकासका भी यही सिद्धान्त है कि वह उत्तरकालमें विस्तृत होता है । इस उल्लेखसे भी स्पष्ट जाना जाता है कि समन्तभद्र पूर्ववर्ती हैं। और कुमारिल परवर्ती । वादिराज द्वारा सम्पुष्टि इसका ज्वलन्त प्रमाण यह है कि ई० १०२५ के प्रसिद्ध, प्रतिष्ठित और प्रामाणिक तर्कग्रन्थकार वादिराजसूरि ने अपने न्यायविनिश्चयविवरण (भाग १, पृ० ४३९) में समन्तभद्रको आप्तमीमांसा की उल्लिखित कारिका ५९ को और कुमारिल भट्टकी उपरि चर्चित ढाई कारिकाओंमेंसे डेढ़ कारिकाको भी 'उक्तं स्वामिसमन्तभद्वैस्तदुपजीविना भट्टेनापि शब्दोंद्वारा उद्धृत करके कुमारिल भट्टको समन्तभद्रका उपजीवी - अनुगामी प्रकट किया है। इससे स्पष्ट है कि एक हजार वर्ष पहले भी दार्शनिक एवं साहित्यकार समन्तभद्रको पूर्ववर्ती और कुमारिल भट्टको उनका परवर्ती विद्वान् मानते थे । समन्तभद्रका धर्मकोर्ति द्वारा खण्डन (४) (क) अब धर्मकीर्तिको लीजिए । धर्मको ति ( ई० ६३५ ) ने भी समन्तभद्रको आप्तमीमांसाका खण्डन किया है । विदित है कि आप्तमीमांसा ( कारिका १०४ ) में समन्तभद्रने स्याद्वादका लक्षण दिया १. वर्धमानकभंगे च रुचकः क्रियते यदि । तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ॥ माथिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् । न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् ॥ स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्यनित्यता ॥ -- मी० श्लो० वा०, पृ० ६१९ । २. " उक्तं स्वामिसमन्तभद्वैस्तदुपजीविना भट्टेनापि " - शब्दोंके साथ समन्तभद्रकी पूर्वोल्लिखित कारिका ५९ और कुमारिल भट्टकी उपर्युक्त कारिकाओं में से आरम्भकी डेढ़ कारिका उद्धृत है । न्या० वि० वि०, भाग १, पृ० ४३९ । ३. एतेनैव यत्किचिदयुक्तमश्लीलमाकुलम् । प्रलपन्ति प्रतिक्षिप्तं तदप्येकान्तसंभवात् । । - प्रमाणवा० १ १८२ - ३८४ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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