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________________ कोठियाजी सबके बाद आए । मैं संघ-सेवामें उनसे दो मास पूर्व आया था। प्रातःकाल का समय था। मैं मंदिरजीके दर्शन करके आया था। सदियोंके दिन थे। धोती-कुर्ता, पटूका काला कोट, सिरपर सफेद टोपी पहिने जिन सज्जनको देखा, देखते ही उनके हृदयमें प्रेम और श्रद्धाका एकसाथ उदय हुआ। बादमें ज्ञात हआ। विद्वानोंको पढ़ानेके लिए आपकी नियुक्ति हई है। मैं उस समय संघमें नया ही आया था। संगीत सीखनेकी तीव्र लालसा थी। उसी लालसामें एक उपेक्षित-सा प्राणी बन कर भी सबकी सेवा करता था। बाकी समय बाजा लेकर बे-सूरा चीखता रहता था। सचमुच मेरे उपेक्षित जीवन में कोठियाजीका स्नेह एक वरदान बनकर आया । अब तो शरीर पहिले की अपेक्षा काफी सुदढ़ और कुछ स्थल है। मैं 'हिन्दी भूषण'की तैयारी करता रहता था । आप मुझे उसके कोर्सकी 'तक्षशिला काव्य' पढ़ाया करते थे। बदले में मैं उनकी तेलकी मालिश किया करता था। आप कहा करते थे-यदि मेरा वजन तेल-मालिशसे एक पौण्ड बढ़ गया तो तुम्हें एक रुपया दूंगा। मैं उसके लालच में तो नहीं, पर फिर भी पूरे मनोयोगसे मालिश करता था। फिर बादमें आपसे वजन बढ़े बिना भी यदा कदा पैसे वशूल करता रहता था। आपका जीवन सात्त्विक जीवन था । बहत कम बोलते थे। संघमें अक्सर अनेक विषयोंपर आपसमें वाद-विवाद होता था। आपके साथ सभी विद्वान उसमें भाग लेते थे। सदा सुन्दर ढंगसे अपने विषयका प्रतिपादन करते थे । लगभग आठ माह रहकर बनारस लौट गये । सन् ४० के बाद जब संघ मथुरा आया तब पपौरा-विद्यालयसे आकर आपने अपनी सेवाएँ गुरुकुलको प्रदान कर दीं। दो वर्ष आप मथुरा गुरुकुलके आचार्य पदपर रहे। आपके वीर-सेवा-मंदिर, सरसावामें जानेके बाद आपका सम्बन्ध जो सन्निकटसे पडौसीका बना था, एक दूरका सम्बन्ध बन गया । किन्तु आपका प्रेम आज तक मझपर सदा बना रहा। आपके व्यक्तित्वमें निस्पृहता, स्वाभिमान और कर्मठता आज तक है । अभिनन्दन-ग्रन्थ समर्पणके अवसरपर मैं आपका हृदयसे अभिनन्दन करता हूँ। साथ ही आपके शतायु होनेकी भगवान्से प्रार्थना करता हूँ। सरस्वतीपुत्र .पं० श्रेयांसकुमार जैन, सिद्धान्त-न्याय-साहित्य शास्त्री, किरतपुर सरस्वतीपत्र न्यायाचार्य श्री डॉ० दरबारीलालजी कोठिया जैन समाजके जाने-माने सुविख्यात मूर्धन्य विद्वानोंमें अग्रगण्य है । आप दर्शनशास्त्रके उद्भट विद्वान् तो हैं ही, साथ ही असाधारण व्यक्तित्व एवं सर्वतोमुखी प्रतिभाके धनी हैं। आपका जैनदर्शन, बौद्ध एवं वैदिक दर्शनोंका तुलनात्मक गहन अध्ययन आपकी प्रखर प्रतिभाका द्योतक है । आप सिद्धहस्त लेखक, सुकुशल वक्ता होने के साथ-साथ अपने सहयोगी विद्वानोंके प्रति अगाध वात्सल्य और असीम स्नेह रखते हैं। इसका जीता-जागता प्रत्यक्ष प्रमाण हमें श्रवणबेलगोलामें महामस्तकाभिषेकके सुअवसरपर मिला।। . ऐसे महान् सरस्वतीपुत्रके अभिनन्दनसे समाज स्वयं ही गौरवान्वित हो रही है। मेरी श्रीवीरप्रभुसे मंगलकामना है कि परम आदरणीय पंडितजी अपने विद्या-व्यसनी जीवनकी शताब्दि मनाते हुए देश, समाज एवं जिनवाणीकी जीवनपर्यन्त सतत सेवा करते रहें तथा अपने जीवनकाल में अपने ही तुल्य सुयोग्य उत्तराधिकारी तैयार करके समाजकी भावनाको क्रियात्मक रूप प्रदान करनेकी कृपा करेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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