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________________ रचना उन्होंने विक्रम सं० १३६४ से लगाकर विक्रम सं० १३८९ तक २५ वर्षों में की है', एक 'अवन्तिदेशस्थ-अभिनन्दनदेवकल्प' नामका कल्प निबद्ध किया है। इसमें उन्होंने भी म्लेच्छसेनाके द्वारा अभिनन्दनजिनकी मूर्ति के भग्न होनेका उल्लेख किया है और उसके जुड़ने तथा अतिशय प्रकट होनेका वृत्त दिया है और बतलाया है कि यह घटना मालवाधिपति जयसिंहदेव के राज्यकालसे कुछ वर्ष पूर्व हो ली थी और जब उसे अभिनन्दनजिनका आश्चर्यकारी अतिशय सुनने में आया तो वह उनकी पूजाके लिये गया और पूजा करके अभिनन्दनजिनकी देखभाल करने वाले अभयकीर्ति आदि मठपति आचार्यों (भट्टारकों) के लिये देवपूजार्थ २४ हलकी खेती योग्य जमीन दी तथा १२ हलकी जमीन देवपूजकोंके वास्ते प्रदान की। यथा "तमतिशयमतिशायिनं निशम्य श्रीजयसिंहदेवो मालवेश्वरः स्फरभक्तिप्राग्भारभास्वरान्तःकरणः स्वामिनं स्वयमपूजयत् । देवपूजाथं च चविंशतिहलकृष्याँ भूमिमदत्त मठपतिभ्यः । द्वादशहलबाह्यां चावनी देवार्चकेभ्यः प्रददाववन्तिपतिः । अद्यापि दिग्मण्डलव्यापिप्रभा ववैभवो भगवानभिनन्दनदेवस्तत्र तथैव पूज्यमानोऽस्ति ।" -विविधतीर्थ० पृ० ५८ । जिनप्रभसूरिद्वारा उल्लिखित यह मालवाधिपति जयसिंहदेव द्वितीय जयसिंहदेव जान पड़ता है, जिसे जैतुगिदेव भी कहते हैं और जिसका राज्यसमय विक्रम सं० १२९० के बाद और विक्रम सं० १३१४ तक बतलाया जाता है । पण्डित आशाधरजीने त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र, सागारधर्मामतटीका और अनगारधर्मामृतटीका ये तीन ग्रन्थ क्रमशः वि० सं० १२९२, १२९६ और १३०० में इसी (जयसिंहदेव द्वितीय अथवा जैतुगिदेव)के राज्यकालमें बनाये है। जिनयज्ञकल्पकी प्रशस्ति (पद्य ५) में पण्डित आशाधरजीने यहाँ ध्यान देने योग्य एक बात यह लिखी है कि 'म्लेच्छपति साहिबुदीनने जब सपादलक्ष (सवालाख) देश (नागौर-जोधपुरके आसपासके प्रदेश) को ससैन्य आक्रान्त किया तो वे अपने सदाचारकी हानिके भयसे वहाँसे चले आये और मालवाकी धारा नगरीमें आ बसे । इस समय वहाँ विन्ध्यनरेश (विक्रम सं० १२१७ से विक्रम सं० १२४९) का राज्य था ।' यहाँ पण्डित आशाधरजीने जिस मस्लिम बादशाह साहिवहीनका उल्लेख किया है वह शहाबददीनगोरी है। इसने विक्रम सं० १२४९ (ई० सन् ११९२) में गजनीसे आकर भारतपर हमला करके दिल्लीको हस्तगत किया था और उसका १४ वर्ष तक राज्य रहा। और इसलिये असम्भव नहीं इसी आततायी बादशाह अथवा उसके सरदारोंने ससैन्य उक्त १४ वर्षों में किसी समय मालवाके उल्लिखित धन-धान्यादिसे भरपूर मङ्गलपुर नगरपर धावा मारा हो और हीरा-जवाहरातादिके मिलने के दुर्लोभ अथवा धार्मिक विद्वेषसे वहाँ के लोकविश्रुत श्रीअभिनन्दनजिनके चैत्यालय और बिम्बको तोड़ा हो और उसीका उल्लेख मदनकीतिने "म्लेच्छः प्रतापागतः" शब्दों द्वारा किया हो। यदि यह ठीक हो तो यह कहा जा सकता है कि १. मुनिजिनविजयजी द्वारा सम्पादित विविधतीर्थकल्पकी प्रस्तावना पृ० २। २. जैनसाहित्य और इतिहास, पृ० १३४ । ३. इन ग्रन्थोंकी अन्तिम प्रशस्तियाँ । ४. मलेच्छेशेन सपादलक्षविषये व्याप्ते सुवृत्तक्षति त्रासाद्विन्ध्यनरेन्द्रदोःपरिमलस्फूर्जस्त्रिवर्गाजसि । प्राप्तो मालवमण्डले बहुपरोवारः पुरीमावसन् यो धारामपठज्जिनप्रमितिवाक्शास्त्रे महावीरतः ॥५॥ 'म्लेच्छेशेन साहिबुदीन तुरुष्कराजेन' -सागारधर्मा० टीका पु० २४३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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