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________________ इस प्रबन्धसे दो बातें स्पष्ट है। एक तो यह कि मदनकीति निश्चय ही एक ऐतिहासिक सुप्रसिद्ध विद्वान् है और वे दिगम्बर विद्वान् विशालकीतिके सुविख्यात एव 'महाप्रामाणिकचूडामणि' की पदवी प्राप्त वादिविजेता शिष्य थे तथा इन प्रबन्धकोशकार राजशेखरसूरि अर्थात् विक्रम सं० १४०५ से पहले हो गये हैं। दूसरी बात यह कि वे विजयपुरनरेश कुन्तिभोजके समकालीन हैं । और उनके द्वारा सम्मानित हुए थे । अब देखना यह है कि कुन्तिभोजका समय क्या है ? जैन-साहित्य और इतिहासके प्रसिद्ध विद्वान् पं० नाथ रामजी प्रेमीका अनुमान है कि प्रबन्धकोषणित विजयपुरनरेश कुन्तिभोज और सोमदेव (शब्दार्णवचन्द्रिकाकार) वर्णित वीरभोजदेव एक ही हैं। सोमदेवमुनिने अपनी शब्दार्णवचन्द्रिका कोल्हापुर प्रान्तके अर्जुरिका ग्राममें वादीभवज्राङ्कश विशालकीति पण्डितदेवके वैयावृत्यसे वि० सं० १२६२ में बनाकर समाप्त की थी और उस समय वहाँ वीर-भोजदेवका राज्य था। सम्भव है विशालकीति अपने शिष्य मदनकीतिको समझाने के लिये उधर कोल्हापुरकी तरफ गये हों और तभी उन्होंने सोमदेवकी वैयावृत्त्य की हो।' प्रेमीजीकी मान्यतानुसार कुन्तिभोजका समय विक्रम सं० १२६२के लगभग जान पड़ता है और इस लिये विशालकीर्तिके शिष्य मदनकोतिका समय भी यही विक्रम सं० १२६२ होना चाहिये । (ख) पण्डित आशाधरजीने अपने जिनयज्ञकल्पमें', जिसे प्रतिष्ठासारोद्धार भी कहते हैं और जो विक्रम संवत् १२८५ में बनकर समाप्त हआ है, अपनी एक प्रशस्ति दी है । इस प्रशस्ति में अपना विशिष्ट परिचय देते हुए एक पद्य में उन्होंने उल्लेखित किया है कि वे मदनकीत्तियतिपतिके द्वारा 'प्रज्ञापुञ्ज' के नामसे अभिहित हुए थे अर्थात् मदनकोत्तियतिपतिने उन्हें 'प्रज्ञापुञ्ज' कहा था। मदनकोत्तियतिपतिके उल्लेखवाला उनका वह प्रशस्तिगत पद्य निम्न प्रकार है : इत्युदयसेनमुनिना कविसुहृदा योऽभिनन्दितः प्रीत्या । प्रज्ञापुञ्जोऽसीति च योऽभिहि (म) तो मदनकोत्तियतिपतिना ॥ इस उल्लेखपरसे यह मालूम हो जाता है कि मदनकीर्तियतिपति, पण्डित आशाधरजीके समकालीन अथवा कुछ पूर्ववर्ती विद्वान् थे और विक्रम संवत् १२८५के पहले वे सुविख्यात हो चुके थे तथा साधारण विद्वानों एवं मुनियोंमें विशिष्ट व्यक्तित्वको भी प्राप्त कर चुके थे और इसलिये यतिपति-मुनियोंके आचार्य माने जाते थे। अतः इस उल्लेखसे मदनकीत्ति विक्रम संवत् १२८५ के निकटवर्ती विद्वान् सिद्ध होते हैं । (ग) मदनकोत्तिने शासनचतुस्त्रिशिकामें एक जगह (३४वें पद्य में) यह उल्लेख किया है कि आततायी म्लेच्छोंने भारतभूमिको रोंधते हुए मालवदेशके मङ्गलपुर नगरमें जाकर वहाँके श्रीअभिनन्दन-जिनेन्द्रकी मूर्तिको भग्न कर दिया और उसके टुकड़े-टुकड़े हो गये, परन्तु वह जुड़ गयी और सम्पूर्णावयव बन गई और उसका एक बड़ा अतिशय प्रकटित हुआ। जिनप्रभसूरिने अपने विविधतीर्थकल्प अथवा कल्पप्रदीपमें, जिसकी १. जैनसाहित्य और इतिहास पृ० १३९ । २. उक्त ग्रन्थके प० १३८के फटनोटमें उदधत शब्दार्णवचन्द्रिकाकी अन्तिम प्रशस्ति । ३. विक्रमवर्षसपंचाशीतिद्वादशशतेष्वतीतेषु । आश्विनसितान्त्यदिवसे साहसमल्लापराक्षस्य ॥१९॥ ४. यही प्रशस्ति कुछ हेर-फेरके साथ उनके सागारधर्मामृत आदि दूसरे कुछ ग्रन्थोंमें भी पाई जाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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