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________________ ८. अर्हत्सर्वज्ञसिद्धि इस तरह न बुद्ध सर्वज्ञ सिद्ध होता है और न महेश्वर आदि । पर ज्योतिषशास्त्रादिका उपदेश सर्वज्ञके बिना सम्भव नहीं है, अतः अन्ययोगव्यवच्छेद द्वारा अर्हन्त भगवान् ही सर्वज्ञ सिद्ध होते हैं । मीमांसक - अर्हन्त वक्ता हैं, पुरुष हैं और प्राणादिमान् हैं, अतः हम लोगों की तरह वे भी सर्वज्ञ नहीं हैं ? जैन - नहीं, क्योंकि वक्तापन आदिका सर्वज्ञपनेके साथ विरोध नहीं है । स्पष्ट है कि जो जितना अधिक ज्ञानवान् होगा वह उतना हो उत्कृष्ट वक्ता आदि होगा । आपने भी अपने मीमांसादर्शनकार जैमिनिको उत्कृष्ट ज्ञानके साथ ही उत्कृष्ट वक्ता आदि स्वीकार किया है । मीमांसक - अर्हन्त वीतराग हैं, इसलिये उनके इच्छा के बिना वचनप्रवृत्ति नहीं हो सकती है ? जैन - यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इच्छा के बिना भी सोते समय अथवा गोत्रस्खलन आदिमें वचनप्रवृत्ति देखी जाती है और इच्छा करनेपर भी मूर्ख शास्त्रवक्ता नहीं हो पाता । दूसरे, सर्वज्ञके निर्दोष इच्छा मानने में भी कोई बाधा नहीं है और उस दशा में अर्हन्त भगवान् वक्ता सिद्ध हैं । मीमांसक - - अर्हन्तके वचन प्रमाण नहीं हैं, क्योंकि वे पुरुषके वचन हैं, जैसे बुद्ध के वचन ? जैन -- यह कथन भी सम्यक् नहीं है; क्योंकि दोषवान् वचनोंको ही अप्रमाण माना गया है, निर्दोष वचनोंको नहीं । अतः अर्हन्तके वचन निर्दोष होनेसे प्रमाण हैं और इसलिये वे ही सर्वज्ञ सिद्ध हैं । ९. अर्थापत्तिप्रामाण्यसिद्धि सर्वज्ञको सिद्ध करने के लिये जो 'ज्योतिषशास्त्रादिका उपदेश सर्वज्ञके बिना सम्भव नहीं है' यह अर्थापत्ति प्रमाण दिया गया है उसे मीमांसकोंकी तरह जैन भी प्रमाण मानते हैं, अतः उसे अप्रमाण होने अथवा उसके द्वारा सर्वज्ञ सिद्ध न होनेकी शंका निर्मूल हो जाती है । अथवा, अर्थापत्ति अनुमानरूप ही है । और अनुमान प्रमाण है । यदि कहा जाय कि अनुमानमें तो दृष्टान्तकी अपेक्षा होती है और उसके अविनाभावका निर्णय दृष्टान्त में ही होता है किन्तु अर्थापत्ति में दृष्टान्तकी अपेक्षा नहीं होती और न उसके अविनाभावका निर्णय दृष्टान्त में होता है अपितु पक्ष में ही होता है, तो यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि दोनोंमें कोई भेद नहीं हैदोनों ही जगह अविनाभावका निश्चय पक्ष में ही किया जाता है । सर्व विदित है कि अद्वैतवादियोंके लिये प्रमाणोंका अस्तित्व सिद्ध करनेके लिये जो 'इष्टसाधन' रूप अनुमान प्रमाण दिया जाता है उसके अविनाभावका निश्चय पक्षमें ही होता है क्योंकि वहाँ दृष्टान्तका अभाव है । अतः जिस तरह यहाँ प्रमाणों के अस्तित्वको सिद्ध करने में दृष्टान्तके बिना भी पक्ष में ही अविनाभावका निर्णय हो जाता है उसी तरह अन्य हेतुओं में भी समझ लेना चाहिए। तथा इस अविनाभावका निर्णय विपक्ष में बाधक प्रमाणके प्रदर्शन एवं तर्क से होता है । प्रत्यक्षादिसे उसका निर्णय असम्भव है और इसी लिये व्याप्ति एवं अविनाभावको ग्रहण करने रूपसे तर्कको पृथक् प्रमाण स्वीकार किया गया है । अतः अर्थापत्ति अप्रमाण नहीं है । १०. वेदपौरुषेयत्वसिद्धि मीमांसक - ज्योतिषशास्त्रादिका उपदेश अपौरुषेय वेदसे संभव है, अतः उसके लिये सर्वज्ञ स्वीकार करना उचित नहीं है ? Jain Education International - ३०१ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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