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________________ स्पष्ट है कि जब वह सर्वज्ञ सिद्ध हो जाय तो उसका उपदेशरूप आगम प्रमाण सिद्ध हो और जब आगम प्रमाण सिद्ध हो तब वह सर्वज्ञ सिद्ध 1 इसी तरह शरीर भी उसके नहीं बनता है । यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि वेदरूप आगम प्रमाण नहीं है क्योंकि उसमें परस्पर विरोधी अर्थोंका कथन पाया जाता है । सभी वस्तुओंको उसमें सर्वथा भेदरूप अथवा सर्वथा अभेदरूप बतलाया गया है । इसी प्रकार प्राभाकर वेदवाक्यका अर्थ नियोग, भाट्ट भावना और वेदान्ती विधि करते हैं और ये तीनों परस्पर सर्वथा भिन्न हैं । ऐसी हालत में यह निश्चय नहीं हो सकता कि अमुक अर्थ प्रमाण है और अमुक नहीं । अतः वेद भी निरुपाय एवं अशरीरी सर्वज्ञका साधक नहीं है और इसलिये नित्यैकान्तमें सर्वज्ञका भी अभाव सुनिश्चित है । ७. जगत्कर्त्तृत्वाभावसिद्धि किन्तु हाँ, सोपाय वीतराग एवं हितोपदेशी सर्वज्ञ हो सकता है क्योंकि उसका साधक अनुमान है । वह अनुमान यह है - 'कोई पुरुष समस्त पदार्थोंका साक्षात्कर्ता है, क्योंकि ज्योतिषशास्त्रादिका उपदेश अन्यथा नहीं हो सकता।' इस अनुमानसे सर्वज्ञकी सिद्धि होती है । पर ध्यान रहे कि यह अनुमान अनुपायसिद्ध सर्वज्ञका साधक नहीं है, क्योंकि वह वक्ता नहीं है । सोपायमुक्त बुद्धादि यद्यपि वक्ता हैं किन्तु उनके वचन सदोष होनेसे वे भी सर्वज्ञ सिद्ध नहीं होते । दूसरे, बौद्धोंने बुद्धको 'विधूतकल्पनाजाल' अर्थात् कल्पनाओंसे रहित कहकर उन्हें अवक्ता भी प्रकट किया है और अवक्ता होनेसे वे सर्वज्ञ नहीं हैं । तथा योगों (नैयायिकों और वैशेषिकों) द्वारा अभिमत महेश्वर भी स्व-पर-द्रोही दैत्यादिका स्रष्टा होनेसे सर्वज्ञ नहीं है । योग - महेश्वर जगत्का कर्त्ता है, अतः वह सर्वज्ञ है; क्योंकि बिना सर्वज्ञताके उससे इस सुव्यवस्थित एवं सुन्दर जगत् की सृष्टि नहीं हो सकती है ? जैन -- नहीं, क्योंकि महेश्वरको जगत्कर्त्ता सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है । योग -- निम्न प्रमाण है - 'पर्वत आदि बुद्धिमानद्वारा बनाये गये हैं, क्योंकि वे कार्य हैं तथा जड़उपादान-जन्य हैं। जैसे घटादिक ।' जो बुद्धिमान् उनका कर्त्ता है वह महेश्वर हैं । वह यदि असर्वज्ञ हो तो पर्वतादि उक्त कार्यों के समस्त कारकोंका उसे परिज्ञान न होनेसे वे असुन्दर, अव्यवस्थित और बेडौल भी उत्पन्न हो जायेंगे । अतः पर्वतादिका बनानेवाला सर्वज्ञ है ? जैन - यह कहना भी सम्यक् नहीं है, क्योंकि यदि वह सर्वज्ञ होता तो वह अपने तथा दूसरोंके घातक दैत्यादि दुष्ट जीवोंकी सृष्टि न करता । दूसरी बात यह है कि उसे आपने अशरीरी भी माना है पर बिना शरीरके वह जगत्का कर्त्ता नहीं हो सकता । यदि उसके शरीरकी कल्पना की जाय तो महेश्वरका संसारी होना, उस शरीर के लिये अन्य अन्य शरीरकी कल्पना करना आदि अनेक दोष आते हैं । अतः महेश्वर जगत्काकर्ता नहीं है और तब उसे उसके द्वारा सर्वज्ञ सिद्ध करना अयुक्त है । Jain Education International - ३०० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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