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________________ तब वह निश्चयमोक्षमार्गी होता है। अतः मोक्ष प्राप्त करानेवाले रत्नत्रयरूप मार्गपर आरूढ़ होनेके लिये योगीको ध्यान बहुत आवश्यक और उपयोगी है । मनुष्यके चिरन्तन संस्कार उसे विषय और वासनाओंकी ओर ही ले जाते हैं । और इन संस्कारोंकी जनिका एवं उद्बोधिका पाँचों इन्द्रियाँ तो हैं ही, मन तो उन्हें ऐसी प्रेरणा देता है कि उन्हें न जाने योग्य स्थान में भी जाना पड़ता है। फलतः मनुष्य सदा इन्द्रियों और मनका अपनेको गुलाम बनाकर तदनुसार उचित-अनुचित सब प्रकारको प्रवृत्ति करता है। परिणाम यह होता है कि वह निरन्तर राग-द्वेषकी भट्टीमें जलता और कष्ट उठाता है । आचार्य अमितगतिने' ठीक लिखा है कि आत्मा संयोगके कारण नाना दुःखोंको पाता है। अगर वह इस तथ्यको समझ ले तो उस संयोगके छोड़ने में उसे एक क्षण भी न लगे । तत्त्वज्ञानसे क्या असम्भव है ? यह तत्त्वज्ञान श्रुतज्ञान है और श्रुतज्ञान ही ध्यान है। अतः ध्यानके अभ्यासके लिये सर्वप्रथम जावश्यक है इन्द्रियों और मनपर नियंत्रण । जब तक दोनोंपर नियंत्रण न होगा तब तक मनुष्य विषयवासनाओंमें डूबा रहेगा और उनसे कष्टोंको भोगता रहेगा। पर यह तथ्य है कि कष्ट या दुःख किसीको इष्ट नहीं है-सभीको सुख और शान्ति इष्ट है । जब वास्तविक स्थिति यह है तब मनुष्यको सत्संगतिसे या शास्त्रज्ञानसे उक्त तथ्यको समझकर विषय-वासनाओंमें ले जानेवाली इन्द्रियों और मनपर नियंत्रण करना जरूरी है। जब इन्द्रिय और मन नियंत्रित रहेंगे तो मनुष्यकी प्रवृत्ति आत्मोन्मुखी अवश्य होगी, क्योंकि वे निविषय नहीं रह सकते । आत्मा उनका विषय हो जानेपर स्वाधीन सुख और शान्तिकी उत्तरोत्तर अपूर्व उपलब्धि होती जायेगी। यह सच है कि इन्द्रियों और मनपर नियंत्रण करना सरल नहीं है. अति दुष्कर है। परन्तु यह भी सच है कि वह असम्भव नहीं है। सामान्य मनुष्य और असामान्य मनुष्य में यही अन्तर है कि जो कार्य सामान्य मनुष्यके लिए अति दुष्कर होता है वह असामान्य मनुष्यके लिए सम्भव होता है और वह उसे कर डालता है। अतः इन्द्रियों और मनपर नियंत्रण करने में आरम्भमें भले ही कठिनाई दिखे। पर संकल्प और दृढ़ताके साथ निरन्तर प्रयत्न करनेपर उस कठिनाईपर विजय पा ली जाती है । इन्द्रियों और मनपर काबू पानेके लिये अनेक उपाय बताये गये हैं। उनमें प्रधान दो उपाय है-१. परमात्मभक्ति और २. शास्त्रज्ञान । परमात्मभक्तिके लिए पंचपरमेष्ठीका जप, स्मरण और गुणकीर्तन आवश्यक है। उसे ही अपना शरण (नान्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम) माना जाय । इससे आत्मामें विचित्र प्रकारकी शुद्धि आयेगी। मन और वाणी निर्मल होंगे। और उनके निर्मल होते ही वह ध्यानकी ओर झुकेगा तथा ध्यान द्वारा उपर्युक्त द्विविध मोक्षमार्गको प्राप्त करेगा । परमात्म-भक्तिमें उन सब मंत्रोंका जाप किया जाता है जिनमें केवल अर्हत्, केवल सिद्ध, केवल आचार्य, केवल उपाध्याय, केवल मुनि और या सभीको जपा जाता है । आचार्य विद्यानन्दने लिखा है कि परमेष्ठीकी भक्ति (स्मरण, कीर्तन, ध्यान) से निश्चय ही श्रेयोमार्गकी संसिद्धि होती है । इसीसे उनका स्तवन करना बड़े-बड़े मुमि श्रेष्ठोंने बतलाया है। इन्द्रियों और मनको वशमें करनेका दूसरा उपाय श्रुतज्ञान है । यह श्रुतज्ञान सम्यक् शास्त्रोंके अनुशीलन, मनन और सतत अभ्याससे प्राप्त होता है। वास्तवमें जब मनका व्यापार शास्त्रस्वाध्यायमें लगा १. संयोगमूला जीवेन प्राप्ता दुःखपरम्परा । तस्मात्संयोगसम्बधं त्रिधा सर्व त्यजाम्यहम् ॥ -सामायिकपाठ । श्रेयोमार्गसंसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः । इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ मुनिपुङ्गवाः ।। -आप्तप० का० २ । -२३५ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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