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________________ ध्यान-विमर्श यों तो सभी धर्मों और दर्शनोंमें ध्यान, समाधि या योगका प्रतिपादन है । योगदर्शन तो उसीपर आधृत है और योगके सूक्ष्म चिन्तनको लिये हुए है । पर योगका लक्ष्य अणिमा, महिमा, वशित्व आदि ऋद्धिसिद्धियोंकी उपलब्धि है और योगी उनकी प्राप्तिके लिये योगाराधन करता है। योगद्वारा ऋद्धि-सिद्धियोंको प्राप्त करनेका प्रयोजन भी प्रभाव-प्रदर्शन, चमत्कार-दर्शन आदि है। मुक्ति लाभ भी योगका एक उद्देश्य है, पर वह गौण है। जैन दर्शनमें ध्यानका लक्ष्य मुख्यतया कर्म-निरोध और कर्म-निर्जरा है और इन दोनोंके द्वारा अशेष कर्ममुक्ति प्राप्त करना है । यद्यपि योगीको अनेक ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ भी उसके योग-प्रभावसे उपलब्ध होती हैं। पर वे उसकी दृष्टि में प्राप्य नहीं हैं, मात्र आनुषंङ्गिक हैं । उनसे उसको न लगाव होता है और न उसके लिये वह ध्यान करता है । वे तथा अन्य स्वर्गादि अभ्युदय उसे उसी प्रकार मिलते हैं जिस प्रकार चावलोंके लिये खेती करनेवाले किसानको भूसा अप्रार्थित मिल जाता है। किसान भूसाको प्राप्त करनेका न लक्ष्य रखता है और न उसके लिये प्रयास ही करता है। योगी भी योगका आराधन मात्र कर्म-निरोध और कर्मनिर्जराके लिये करता है। यदि कोई योगी उन ऋद्धि-सिद्धियोंमें उलझता है-उनमें लुभित होता है तो वह योगके वास्तविक लाभसे वंचित होता है। तत्त्वार्थसत्रकार आचार्य उमास्वातिने स्पष्ट लिखा है कि तप (ध्यान) से संवर (कर्म-निरोध) और कर्म-निर्जरा दोनों होते हैं । आचार्य रामसेने भी अपने तत्त्वानुशासनमें ध्यानको संवर तथा निर्जराका कारण बतलाते हैं। इन दोनोंसे समस्त कर्मोका अभाव होता है और समस्त कर्माभाव ही मोक्ष है। इससे स्पष्ट है कि जैन दर्शनमें ध्यानका आध्यात्मिक महत्त्व मुख्य है । ध्यानकी आवश्यकतापर बल देते हए आचार्य नेमिचन्द्र लिखते हैं कि मुक्तिका उपाय रत्नत्रय है और यह रत्नत्रय व्यवहार तथा निश्चयकी अपेक्षा दो प्रकारका है। यह दोनों प्रकारका रत्नत्रय ध्यानसे ही उपलभ्य है । अतः सम्पूर्ण प्रयत्न करके मुनिको निरन्तर ध्यानका अभ्यास करना चाहिये। तत्त्वार्थसारकार आ० अमृतचन्द्र भी यही कहते हैं । यथार्थ में ध्यानमें जब योगी अपनेसे भिन्न किसी दूसरे मंत्रादि पदार्थका अवलम्बन लेकर उसे ही अपने श्रद्धान, ज्ञान और आचरणका विषय बनाता है तब वह व्यवहार-मोक्षमार्गी होता है और जब केवल अपने आत्माका अवलम्बन लेकर उसे ही श्रद्धा, ज्ञान और चर्याका विषय बनाता है १. 'आस्रवनिरोधः संवरः', 'तपसा निर्जरा च'-त० सू० ९-१, ३ ।। २. 'तद् ध्यानं निर्जराहेतुः संवरस्य च कारणम् ।'-तत्त्वानु० ५६ । ३. 'बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमाक्षो मोक्षः'-त० सू० १०-२। ४. दुविहं पि मोक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा । तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह ॥ -द्रव्यसंग्रह गा०४७ । निश्चय-व्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः । तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ।।-तत्त्वार्थसार । -२३४ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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