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________________ सल्लेखना- धारी सबसे पहले इष्ट वस्तुओंमें राग, अनिष्ट वस्तुओंमें द्वेष, स्त्री- पुत्रादि प्रियजनों में ममत्व और धनादिमें स्वामित्वका त्याग करके मनको शुद्ध बनाये । इसके पश्चात् अपने परिवार तथा सम्बन्धित व्यक्तियोंसे जीवनमें हुए अपराधोंको क्षमा कराये और स्वयं भी उन्हें प्रिय वचन बोलकर क्षमा करे । इसके अनन्तर वह स्वयं किये, दूसरोंसे कराये और अनुमोदना किये हिंसादि पापोंकी निश्छल भावसे आलोचना (उनपर खेद प्रकाशन) करे तथा मृत्युपर्यन्त महाव्रतोंका अपने में आरोप करे । इसके अतिरिक्त आत्माको निर्बल बनानेवाले शोक, भय, अवसाद, ग्लानि, कलुषता और आकुलता जैसे आत्म-विकारोंका भी परित्याग करे तथा आत्मबल एवं उत्साहको प्रकट करके अमृतोपम शास्त्रवचनों द्वारा मनको प्रसन्न रखे । इस प्रकार कषायको शान्त अथवा क्षीण करते हुए शरीरको भी कृष करनेके लिए सल्लेखनामें प्रथमतः अन्नादि आहारका, फिर दूध, छाछ आदि पेय पदार्थोंका त्याग करे । इसके अनन्तर कांजी या गर्म जल पीनेका अभ्यास करे । अन्तमें उन्हें भी छोड़कर शक्तिपूर्वक उपवास करे । इस तरह उपवास करते एवं पंचपरमेष्ठीका ध्यान करते हुए पूर्ण विवेकके साथ सावधानी में शरीरको छोड़े । इस अन्तरङ्ग और बाह्य विधिसे सल्लेखनाधारी आनन्द-ज्ञानस्वभाव आत्माका साधन करता है और वर्तमान पर्याय विनाशसे चिन्तित नहीं होता, किन्तु भावी पर्यायको अधिक सुखी, शान्त, शुद्ध एवं उच्च बनानेका पुरुषार्थ करता है। नश्वरसे अनश्वरका लाभ हो, तो उसे कौन बुद्धिमान् छोड़ना चाहेगा ? फलतः सल्लेखना- धारक उन पाँच दोषोंसे भी अपनेको बचाता है, जिनसे उसके सल्लेखना - व्रतमें दूषण लगनेकी सम्भावना रहती है । वे पाँच दोष निम्न प्रकार बतलाये गये हैं" -- सल्लेखना ले लेनेके बाद जीवित रहनेकी आकांक्षा करना, कष्ट न सह सकने के कारण शीघ्र मरनेकी इच्छा करना, भयभीत होना, स्नेहियों का स्मरण करना और अगली पर्यायमें सुखोंकी चाह करना ये पाँच सल्लेनाव्रत के दोष हैं, जिन्हें 'अतिचार' कहा गया है । शोकं भयमवसादं क्लेदं कालुष्यमरतिमपि हित्वा । सत्त्वोत्साहमुदीर्य च मनः प्रसाद्यं श्रुतैरमृतैः ॥ आहारं परिहाप्य क्रमशः स्निग्धं विवर्द्धयेत्पानम् । स्निग्धं च हापयित्वा खरपानं पूरयेत्क्रमशः ॥ खरपान - हापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या । पञ्चनमस्कारमनास्तनुं त्यजेत्सर्वयत्नेन ॥ -- रत्नक० श्रा० ५,३-७ । १. जीवित मरणांशसे भय मित्रस्मृति - निदान नामानः । सल्लेखनातिचाराः पञ्च जिनेन्द्रः समादिष्टाः ॥ रत्नक० श्रा० ५,८ । २०८ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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