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________________ 'अपरिहार्य उपसर्ग, भिक्ष, बुढ़ापा और रोग-इन अवस्थाओंमें आत्मधर्मकी रक्षाके लिए जो शरीरका त्याग किया जाता है वह सल्लेखना है।' स्मरण रहे कि जैन व्रती-श्रावक या साधकी दृष्टि में शरीरका उतना महत्त्व नहीं है जितना आत्माका है; क्योंकि उसने भौतिक दृष्टिको गौण और आध्यात्मिक दृष्टिको उपादेय माना है । अतएव वह भौतिक शरीरकी उक्त उपसर्गादि संकटावस्थाओं में, जो साधारण व्यक्तिको विचलित कर देनेवाली होती है, आत्मधर्मसे च्युत न होता हुआ उसकी रक्षाके लिए साम्यभावपूर्वक शरीरका उत्सर्ग कर देता है। वास्तवमें इस प्रकारका विवेक, बुद्धि और निर्मोहभाव उसे अनेक वर्षों के चिरन्तन अभ्यास और साधना द्वारा ही प्राप्त होता है । इसीसे सल्लेखना एक असामान्य असिधारा-व्रत है जिसे उच्च मनःस्थितिके व्यक्ति ही धारण कर पाते हैं । सच बात यह है कि शरीर और आत्माके मध्यका अन्तर (शरीर जड़, हेय और अस्थायी है तथा आत्मा चेतन, उपादेय और स्थायी है) जान लेनेपर सल्लेखना-धारण कठिन नहीं रहता। उस अन्तरका ज्ञाता यह स्पष्ट जानता है कि 'शरीरका नाश अवश्य होगा, उसके लिए अविनश्वर फलदायी धर्मका नाश नहीं करना चाहिए, क्योंकि शरीरका नाश हो जानेपर तो दूसरा शरीर पुनः मिल सकता है । परन्तु आत्मधर्मका नाश हो जानेपर उसका पुनः मिलना दुर्लभ है। अत: जो शरीर-मोही नहीं होते वे आत्मा और अनात्माके अन्तरको जानकर समाधि मरण द्वारा आत्मासे परमात्माकी ओर बढ़ते हैं । जैन सल्लेखनामें यही तत्त्व निहित है। इसीसे प्रत्येक जैन देवोपासनाके अन्तमें प्रतिदिन यह पवित्र कामना करता है 'हे जिनेन्द्र ! आप जगत् बन्धु होनेके कारण मैं आपके चरणोंकी शरणमें आया हूँ। उसके प्रभावसे मेरे सब दुःखोंका अभाव हो, दुःखोंके कारण ज्ञानावरणादि कर्मोका नाश हो और कर्मनाशके कारण समाधिमरणकी प्राप्ति हो तथा समाधिमरणके कारणभूत सम्यक्बोध (विवेक) का लाभ हो ।' जैन संस्कृति में सल्लेखनाका यही आध्यात्मिक उद्देश्य एवं प्रयोजन स्वीकार किया गया है। लौकिक भोग या उपभोग या इन्द्रादि पदकी उसमें कामना नहीं की गई है। मुमुक्षु श्रावक या साधुने जो अब तक व्रत-तपादि पालनका घोर प्रयत्न किया है, कष्ट सहे हैं, आत्म-शक्ति बढ़ाई है और असाधारण आत्म-ज्ञानको जागत किया है उसपर सुन्दर कलश रखनेके लिए वह अन्तिम समयमें भी प्रमाद नहीं करना चाहता । अतएव वह जागृत रहता हुआ सल्लेखनामें प्रवृत्त होता है । सल्लेखनावस्थामें उसे कैसी प्रवृत्ति करना चाहिए और उसकी विधि क्या है ? इस सम्बन्धमें भी जैन लेखकोंने विस्तृत और विशद विवेचन किया है । आचार्य समन्तभद्रने सल्लेखनाकी निम्न प्रकार विधि बतलाई है : १. नावश्यं नाशिने हिंस्यो धर्मो देहाय कामदः । देहो नष्टः पुनर्लभ्यो धर्मस्त्वत्यन्तदुर्लभः ।। -सा० ध०, ८-७ । २. दुक्ख-खओ कम्म-खओ समाहिमरणं च बोहिलाहो य । ___ मम होउ जगदबंधव ! तव जिणवर ! चरणसरणेण ॥-भारतीय ज्ञान० पू०, १० ८७ । ३. स्नेहं संगं परिग्रहं चापहाय शुद्धमनाः । स्वजनं परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत्प्रियैर्वचनैः ।। आलोच्य सर्वमेनः कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजम् । आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निःशेषम् ।। - २०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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