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________________ मिलता है और न दुःखसे छूट पाता है। तात्पर्य यह कि आत्माको उक्त स्वभाव अथवा धर्म आत्मामें अपने रूपमें यदि उपलब्ध है तो आत्माको अवश्य सुख प्राप्त होता है और उसके दुःखोंका भो अन्त हो जाता है । अतः जैन धर्मका दृष्टिकोण प्रत्येक प्राणीको दुःखसे छुड़ाकर उत्तम सुख (मोक्ष) की ओर पहुँचाने का है । इसीसे जैन धर्ममें रत्नत्रय ( सम्यकदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) को धर्म कहा गया है और मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रको अधर्म बतलाया गया है, जो संसार-परिभ्रमणका कारण है। जैसाकि हम ऊपर आचार्य समन्तभद्रके उल्लिखित धर्मके स्वरूप द्वारा देख चुके हैं। इससे यह सहजमें जान सकते हैं कि जीवनको पूर्ण सुखी, शान्त, निराकुल और दुःख रहित बनाने के लिए हमें धर्म अर्थात् स्वभावकी उपलब्धिकी कितनी भारी आवश्यकता है । इस स्वभावकी उपलब्धिके लिये हमें उसके तीनों रूपों-अङ्गों-श्रद्धा, ज्ञान और आचारको अपनाना परमावश्यक है। श्रद्धा-शन्य ज्ञान -विचार और आचार तथा विचारशन्य श्रद्धा एवं आचार और आचारहीन श्रद्धा एवं विचार संसारपरम्पराको काटकर पूर्ण सुखी नहीं बना सकते । अतः इन तीनोंकी ओर सुखाभिलाषियों एवं दुःख-निवृत्तिके इच्छुकोंको ध्यान रखना आवश्यक एवं अनिवार्य है। आज सारा विश्व त्रस्त और भयभीत है। इस त्रास और भयसे मुक्त होने के लिए वह छटपटा रहा है। पर उसके ज्ञान और प्रयत्न उचित दिशामें नहीं हो रहे । इसका कारण उसका मन अशुद्ध है । प्रायः सबके हृदय कलुषित हैं, दुर्भावनासे युक्त हैं, दूसरोंको पददलित करके अहंकारके उच्च शिखरपर आसीन रहने की भावना समाई हुई है और इस तरह न जाने कितनी दुर्भावनाओंसे वह भरा हुआ है। यह वाक्य अक्षरशः सत्य है कि 'भावना भवनाशिनी, भावना भवद्धिनी' अर्थात् भावना ही संसारके दुःखोंका अन्त करती है और भावना ही संसारके दुःखोंको बढ़ाती है। यदि विश्व जैन धर्मके उसूलोंपर चले तो वह आज ही सुखी और त्रासमक्त हो सकता है। वह अहंकारको छोड़ दे, रोषको त्याग दे, असहिष्णुताको अलग कर दे, दूसरोंको सताने और अतिसंग्रहकी वृत्तिको सर्वथा तिलाञ्जलि दे दे तथा सर्व संसारके सुखी होनेकी भावनाको-'भादना दिन-रात मेरी सब सुखी संसार हो'अपने हृदयमें समा ले तथा वैसी प्रवृत्ति भी करे। अनेकान्तके विचार द्वारा विचार-वैमत्यको और अहिंसा, अपरिग्रह आदिके सुखद आचार द्वारा आचार-संघर्षको मिटाकर वह आगे बढ़े तो वह त्रस्त एवं दुखी न रहे। अतः श्रद्धा समन्वित ज्ञान और आचार रूप धर्म ही व्यक्ति-व्यक्तिको सुखी कर सकता है और दुःखोंसे उसे मुक्त कर सकता है । इसलिए धर्मका पालन कितना आवश्यक है, यह उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचनसे स्पष्ट है। -१४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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