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________________ धर्म : एक चिन्तन धर्मका स्वरूप जैन संस्कृतिमें धर्मका स्वरूप निरूपित करते हए कहा गया है कि धर्म वह है जो प्राणियोंको संसारके दुःखोंसे निकालकर उत्तम सुख में पहुँचाये---उसे प्राप्त कराये। आचार्य समन्तभद्रने अपने रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें 'धर्म' शब्दकी व्युत्पत्तिसे फलित होनेवाला धर्मका यही स्वरूप बतलाया है देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम् । संसारदुखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ।। प्रश्न है कि संसारके दुःखोंका कारण क्या है और उत्तम सुखकी प्राप्तिके साधन क्या है, क्योंकि जब तक दुःखोंके कारणोंको ज्ञातकर उनकी निवृत्ति नहीं की जायगी तथा उत्तम सुखकी प्राप्तिके साधनोंको अवगत कर उन्हें अपनाया नहीं जायेगा तब तक न उन दुःखोंकी निवृत्ति हो सकेगी और न उत्तम सुख ही प्राप्त हो सकेगा? इस प्रश्नका उत्तर भी इसी ग्रन्थमें विशदताके साथ दिया है। उन्होंने कहा है सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ।। 'उत्तम सुखको प्राप्त करने का साधन सदृष्टि-सम्यक् श्रद्धा (निष्ठा), सज्ज्ञान (सम्यक् बोध) और सद्वृत्त-सदाचरण (सम्यक् आचरण) इन तीनोंकी प्राप्ति है और दुःखोंके कारण इनसे विपरीत-मिथ्याश्रद्धा, मिथ्याज्ञान और मिथ्या आचरण है, जिनके कारण संसारको परम्परा-संसार-परिभ्रमण होता है।' तात्पर्य यह है कि धर्मका प्रयोजन अथवा लक्ष्य दुःखको निवृत्ति और सुखकी प्राप्ति है। और प्रत्येक प्राणी, चाहे वह किसी भी अवस्थामें हो, यही चाहता है कि हमें दुःख न हो, हम सदा सुखी रहें । वास्तवमें दुःख किसीको भी इष्ट नहीं है, सभोको सुख इष्ट है। तब इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टकी निवृत्ति किसे इष्ट नहीं है और कौन उसके लिए प्रयत्न नहीं करता ? अनुभवको साक्षीके साथ यही कहा जा सकता है कि सारा विश्व निश्चय हो ये दोनों बातें चाहता है और इसलिए धर्मके प्रयोजन दुःख-निवृत्ति एवं सुखप्राप्तिमें किसीको भी मतभेद नहीं हो सकता। हाँ, उसके साधनोंमें मतभेद हो सकता है। जैन धर्मका दृष्टिकोण जैन धर्मका दृष्टिकोण इस विषयमें बहुत ही स्पष्ट और सुलझा हुआ है । उसका कहना है कि वस्तुका स्वभाव धर्म है-'वत्थुसहावो धम्मो।' आत्मा भी एक वस्तु है और उसका स्वभाव रत्नत्रय है, अतः रत्नत्रय आत्माका धर्म है। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीन असाधारण आत्मगुण 'रत्नत्रय' कहे जाते हैं। जब आत्मा इन तीन गुणरूप अपने स्वभावमें स्थिर होता है तो उसे वस्तुतः सुख प्राप्त होता है और दुःखसे छुटकारा मिल जाता है। संसार दशामें आत्माका उक्त स्वभाव मिथ्यात्त्व, अज्ञान, क्रोध, मान, मात्सर्य, छल-कपट, दम्भ, असहिष्णुता आदि दुष्प्रवृत्तियों अथवा बुराइयोंसे युक्त रहता है और इसलिए स्वभाव स्वभावरूपमें नहीं, किन्तु विभावरूपमें रहता है। इस कारण उसे न सच्चा सुख -१४६ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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