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________________ और चूंकि तत्तत् समय उसमें अप्रेरक बाह्यनिमित्तकारण होता है। इसलिए वर्तनाके द्वारा निमित्तकारणरूपसे कालद्रव्य अनुमेय है, इसीसे वर्तनाको काल-द्रव्यके अस्तित्वका समर्थक मुख्य हेतु कहा जाता है। आ० विद्यानन्दने भी इसी तरहका विस्तृत वर्णन किया है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ० ४१४ पर एक अनुमान ही ऐसा प्रस्तुत है, जिसमें उन्होंने स्पष्टतया जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और इनकी व्यापक सत्ता तथा सूर्यगति आदिकी ही वर्तना स्वीकार की है और उसके द्वारा बहिरङ्गकारणरूपसे कालकी सिद्धि की है। जब शंकाकारके द्वारा कालवर्तनाके साथ व्यभिचार दोष उपस्थित किया गया तब उन्होंने कालकी मुख्य वर्तना न होनेका ही सिद्धान्त स्थापित किया है और धर्मादि द्रव्योंकी ही मुख्य वर्तना बतलाई है। कालद्रव्यकी भी मुख्य वर्तना मानने में अनवस्था दोष दिया गया है। साथमें यह भी कहा गया कि कालमें वृत्ति और वर्तकका विभाग न होनेसे मुख्य वर्तना बन भी नहीं सकती। यदि शक्तिभेदसे वृत्ति और वर्तकका विभाग माना जावे तो कालद्रव्यकी भी वर्तना कही जा सकती है क्योंकि कालवर्तनाका बहिरङ्गकारण वर्तक शक्ति हो जाती है । इस तरह विद्यानन्द स्वामीने अनुमानमें उपस्थित किये गये व्यभिचार दोषको उत्सारित किया है । विद्यानन्दके इस स्फुट विवेचनसे हम इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि वास्तवमें वर्तना सभी द्रव्यगत है और काल उसमें केवल बहिरंग कारण है । द्रव्योंके इस वर्तना-अस्तित्वरूप परिणमनमें बहिरंग कारण न तो आकाश है और न जीवादिद्रव्य हैं, क्योंकि वे सब तो उसके उपादान कारण हैं और प्रत्येक कार्य उपादान तथा निमित्त इन दो कारणोंसे होता है। अतः वर्तनाके उपादान कारण जीवादिसे अतिरिक्त निमित्तकारणरूपसे निश्चयकालद्रव्यकी सिद्धि होती है। सर्वार्थसिद्धि (सोलापुर संस्करण) पृ० १८३ में एक अतिस्पष्ट पादटिप्पण (फुटनोट) दिया गया है, जो श्रुतसागरसूरिकी श्रुतसागरी तत्त्वार्थवृत्तिका जान पड़ता है और जिससे भी यह स्पष्ट हो जाता है कि सभी द्रव्योंका प्रतिसमय वर्तन स्वभाव है तथा प्रतिक्षण उनकी उत्तरोत्तर सूक्ष्म पर्यायोंमें जो परमाणरूप बाह्य निश्चयकालकी अपेक्षा लेकर वर्तन-परिणमन होता है वह वर्तना है । यहाँ फुटनोटकी कुछ उपयोगी पंक्तियोको दिया जाता है "एवं सर्वेषां द्रव्याणां प्रतिसमयं स्थूलपर्यायविलोकनात् स्वयमेव वर्तनस्वभावत्वेन बाह्यनिश्चयकालं परमाणुरूपं अपेक्ष्य प्रतिक्षणं उत्तरोत्तरसूक्ष्मपर्यायेषु वर्तनं परिणमनं यद् भवति सा वर्तना निर्णीयते"। यहाँ “वर्तनं परिणमनं" कहकर तो वर्तनाका अर्थ परिणाम भी स्पष्टतया प्रतिपादन किया गया है। इस तरह सिद्धान्तग्रन्थोंसे यह ज्ञात हो जाता है कि पं० राजमल्लजीने वर्तनाका जो "द्रव्याणामात्मना सत्परिणमनमिदं वर्तना" लक्षण किया है और हमने उसका जो 'द्रव्योंके अपने रूपसे सत्परिणामका नाम वर्तना है' हिन्दी अर्थ किया है दोनों ही सिद्धान्त सम्मत है—गलत नहीं हैं। अब विचारके लिये शेष रह जाता है कि यदि सत्परिणाम वर्तना है तो परिणाम और वर्तनामें भेद क्या है, क्योंकि काल द्रव्य के उपकारोंमें परिणामको भी वर्तनासे पृथक् बतलाया गया है ? इसका खुलासा इस प्रकार है प्रथम तो सामान्यतया वर्तना और परिणाममें कोई भेद नहीं है, क्योंकि वस्तुतः परिणाम आदि जो कालद्रव्यके उपकार बतलाये गये हैं वे वर्तनाके ही भेद है। जैसा कि आ० पूज्यपादके निम्न कथनसे प्रकट है१. त० श्लो० वा० ५-२२, पृ० ४१३, ४१४ । -१३० - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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