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________________ वास्तव में अनेक विद्वान यही समझते हैं कि वर्तना कालद्रव्यकी ही खास पर्याय, परिणमन अथवा गुण हैं और वह सीधी कालपर्याय है। पर यथार्थ में यह बात नहीं है। वर्तना जीवादि छहों द्रव्योंका अस्तित्वरूप (उत्पाद-व्यय-धोव्यात्मक)२ स्वात्मपरिणमन है और इस अस्तित्वरूप स्वात्मपरिणमनमें उपादानकारण तो तत्तद्दव्य हैं और साधारण बाह्य निमित्तकारण अथवा उदासीन अप्रेरक कारण कालद्रव्य है । यदि प्रत्येक द्रव्य स्वत. वर्तनशील न हो तो वर्तनाको केवल कालद्रव्यकी सीघी पर्याय मानकर भी कालको उनका वतंयिता-वर्तानवाला नहीं कहा जा सकता और न वह हो ही सकता है । किन्तु जब प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय वर्त रहे होंगे तभी वह कालाणु (काल द्रव्य) प्रत्येक समय उनके वर्तानेमें निमित्तकारण होता है। अतएव जिस प्रकार धर्मादि द्रव्य न हों तो जीव-पुद्गलोंकी गत्यादि नहीं हो सकती अथवा कुम्हारके चाककी कीली न हो तो चाक घूम नहीं सकता। उसी प्रकार कालद्रव्य न हो तो निमित्तकारणके विना उन द्रव्योंका वर्तन नहीं हो सकता है। इसी निमित्तकारणताकी अपेक्षासे ही धर्मादिद्रव्यके गत्यादि उपकारकी तरह वर्तनाको कालद्रव्यका उपकार कहा गया है। इसी बातको सर्वार्थसिद्धिकार आ० पूज्यपादने कहा है 'धर्मादीनां द्रव्याणां स्वपर्यायनिर्वृति प्रति स्वात्मनैव वर्तमानानां बाह्योपग्रहाद्विना तवृत्यभावात्तत्प्रवर्तनोपलक्षितः काल इति कृत्वा वर्तना कालस्योपकारः ।' -स० सि० ५-२२ । विद्वद्वर्य पं० राजमल्लजीने अपना पूर्वोक्त वर्तनालक्षण पूज्यपादके इसी वर्तनालक्षणके आधारपर रचा जान पड़ता है, क्योंकि दोनों लक्षणोंको जब सामने रखकर एक साथ पढ़ा जाता है तो वैसा स्पष्ट प्रतीत होता है । आ० अकलङ्कदेव भी यही कहते हैं "प्रतिद्रव्यपर्यायमन्तीतकसमया स्वसत्तानुभूतिर्वर्तना"एकस्मिन्नविभागिनि समये धर्मादीनि द्रव्याणि षडपि स्वपर्यायरादिमदनादिमद्धिरुत्पादव्ययध्रौव्यविकल्पैर्वर्तन्ते इति कृत्वा तद्विषया वर्तना। साऽनुमानिकी व्यावहारिकदर्शनात् पाकवत् । यथा व्यावहारिकस्य पाकस्य तंदुलविक्लेदनलक्षणस्यौदनपरिणामस्य दर्शनादनुमीयते-अस्ति प्रथमसमयादारभ्य सूक्ष्मपाकाभिनिर्वृत्तिः प्रतिसमयमिति । यदि हि प्रथमसमयेऽग्न्युदकसन्निधाने कश्चित् पाकविशेषो न स्यात्, एवं द्वितीये तृतीये च न स्यात् इति पाकाभाव एव स्यात् । तथा सर्वेषामपि द्रव्याणां स्वपर्यायाभिनिर्वत्तौ प्रतिसमयं दुरधिगमा निष्पत्तिरभ्युपगन्तव्या। तल्लक्षणः कालः। सा वर्तना लक्षणं यस्य स काल इत्यवसेयः। समयादीनां क्रियाविशेषाणां समयादिनिर्वत्त्यानां च पर्यायाणां पाकादीनां स्वात्मसद्भावानुभवनेन स्वत एव वर्तमानानां निवृत्तेर्बहिरङ्गो हेतुः समयः पाक इत्येवमादिस्वसंज्ञारूढ़िसद्भावे काल इत्ययं व्यवहारोऽकस्मान्न भवतीति तद्व्यवहारहेतुनाऽन्येन भवितव्यमित्यनुमेयः ।" -त० वा०, ५-२२ यहाँ अकलङ्गदेवने बहुत ही विशदताके साथ कहा है कि "हरेक द्रव्यपर्यायमें जो हर समय स्वसत्तानुभवन-वर्तन होता है वह वर्तना है । अर्थात् एक अविभागी समयमें धर्मादि छहों द्रव्य स्वतःही अपनी सादि और अनादि पर्यायोंसे जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप हैं, वर्त रहे हैं उनके इस वर्तनको ही वर्तना कहते है १. उदाहरणस्वरूप देखें, जयधवला, प्रथम पुस्तक (मुद्रित), पृ०४० । २. 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्', 'सद् द्रव्यलक्षणम्'-त० सू० ५-३०, २९ । ३. जैन सिद्धान्तदर्पण, प्र० भा०, पृ० ७२ । - १२९ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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