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________________ २. मूल ग्रन्थ भाग इस भागमें आचार्य नेमिचन्द्र प्रणीत द्रव्यसंग्रह तथा पं० जयचन्द्रकृत देशवचनिका व पद्यानुवाद सम्मिलित है। ३. परिशिष्ट भाग द्रव्यसंग्रहके परिशिष्ट भागमें चार परिशिष्ट समाहित हैं-१. द्रव्यसंग्रहकी संक्षिप्त संस्कृत व हिन्दी व्याख्या संपादककृत, २. गाथानुक्रम द्रव्यसंग्रहका, ३. पं० जयचन्द्रकृत वचनिकागत उद्धरण वाक्य, और ४. द्रव्यसंग्रहवचनिकाके पाठान्तर । संपादकने इन सभी शीर्षकों-उपशीर्षकोंपर गहराईसे चिन्तन-मनन किया है और विषयके हर पहलूको बड़ी गहराईसे छुआ है । उदाहरणार्थ-साधारण तौर पर यह माना जाता रहा है कि बृहद द्रव्यसंग्रह लघुद्रव्यसंग्रहका बृहद् रूप ही है। डॉ० कोठियाने ग्रन्थके अन्तःपरीक्षणके आधार पर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि ये दोनों ग्रन्थ वस्तुतः अपने आपमें स्वतन्त्र हैं। एक ही लेखकके दो ग्रन्थों में विषयसामग्रीकी कुछ समानताका होना अस्वाभाविक नहीं है। पर उस समानताके आधारपर ही यह कह देना समुचित नहीं कहा जा सकता कि दोनों एक हैं। इसी तरह लघुद्रव्यसंग्रहमें कुल २६ गाथाएँ हैं। इन गाथाओंमें ६३ गाथाएँ बृहद्रव्यसंग्रहमें किसी तरह समाहित हुई हैं। इतने मात्रसे दोनों ग्रन्थोंको एक नहीं कहा जा सकता । लेखककी दृष्टिमें भी दोनों ग्रन्थ स्वतन्त्र रहें हैं अन्यथा वे स्वतंत्र मंगलपद्य और उपसंहारात्मक अन्तिम पद्य भिन्न-भिन्न न रखते । संपादकने इसी संदर्भ में यह भी स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि बृहद् द्रव्यसंग्रहकी २० वी गाथा कदाचित् लघुद्रव्यसंग्रहकी मूल गाथा रही हो, जो प्रथम प्रतिलिपिकारकी भूलसे छूट गई हो । ब्रह्मदेवने इसपर टीका लिखी है । इससे भी यह प्रमाणित होता है। ब्रह्मदेवके स्वरमें अपना स्वर मिलकर संपादकने द्रव्यसंग्रहको द्रव्यानुयोगके साथ-साथ अध्यात्मशास्त्रका भी ग्रन्थ माना है ।। इसी तरह द्रव्यसंग्रहके लेखकके बारेमें भी जो कुछ थोड़ी-बहुत विशृङ्खलताएँ थीं वे भी पंडितजीने बड़े ऊहापोहके साथ दूर कर दी हैं। उन्होंने यह प्रस्थापना की है कि वसुनन्दिके गुरु नेमिचन्द्रको ही द्रव्यसंग्रहका कर्ता माना जाना चाहिए। इनका समय वि० सं० ११२५ के आसपास होना चाहिए। इस ग्रन्थकी रचना आचार्य नेमिचन्द्रने आश्रम नगरमें की, जो राजस्थानके अन्तर्गत कोटासे उत्तरपूर्वकी ओर लगभग ९ भीलकी दूरी पर और बूंदीसे लगभग ३ मील दूर चर्मण्वती (चम्बल) नदीपर अवस्थित वर्तमान 'केशोराय पाटण' अथवा 'पाटण केशोराय' ही है। इस प्रकार दर्शन और न्यायके तलस्पर्शी विद्वान डॉ० कोठियाजीके हाथसे द्रव्यसंग्रहका जितना सुन्दर संपादन हुआ है आधुनिकतम संपादनपद्धतिके आधारपर उतना अच्छा अन्य कोई संस्करण देखने में नहीं आया। पंडितजीकी इस विद्वत्ताका उपयोग अष्टसहस्री जैसे ग्रन्थोंको उपलब्ध हो जाये तो ये ग्रन्थ 'कष्टसहस्री' के रूपसे मुक्त हो सकते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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