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________________ प्रमाणलक्षणोंको विवेचनापूर्वक असाधु बताकर अपने द्वारा निर्मित प्रमाणलक्षणको निर्दोष सिद्ध किया है । Safe प्रभाकरका मत है कि जिस माध्यम से अर्थका प्रकाशन होता है, वह प्रमाण है और अर्थका प्रकाशन ज्ञाताके व्यापार द्वारा होता है। जबतक ज्ञाता ज्ञेय वस्तुके ज्ञानके निमित्त व्यापार, अर्थात् प्रवृत्ति नहीं करता, तबतक उसे वस्तुका ज्ञान नहीं होता । वस्तु, इन्द्रियाँ और ज्ञाता इन तीनोंके विद्यमान रहनेपर भी प्रमेय या वस्तुका ज्ञान नहीं होता । किन्तु ज्ञाता जब व्यापार करता है, तब उसे वस्तुका ज्ञान अवश्य होता है । अतः ज्ञाताके व्यापारको प्रमाण मानना चाहिए । जयन्तभट्ट और उनके अनुगामी वृद्ध नैयायिकोंका मत है कि प्रमेय यानी पदार्थ के ज्ञान (अर्थोपलब्धि ) में अर्थ, आलोक, इन्द्रिय, आत्मा, ज्ञान आदि सभी कारणोंका यथोचित योगदान होता है। इनमें यदि एककी भी कमी रहे, तो अर्थोपलब्धि नहीं हो सकती । इसलिए, सामग्री अथवा कारकसाकल्य ( कारकोंका समग्रता ) ही प्रमाण है । सांख्योंका कहना है कि इन्द्रियोंके व्यापारके बिना अर्थका प्रकाशन नहीं होता, इसलिए अर्थ के प्रकाशन या वस्तुके ज्ञानमें इन्द्रियव्यापारको ही करण या साधकतम या माध्यम होनेसे इन्द्रियवृत्ति हो प्रमाण है । योगवादियोंकी मान्यता है कि ज्ञाताका व्यापार, इन्द्रियों का व्यापार और कारकसाकल्य अर्थ ज्ञान में तबतक कुछ भी सक्रिय योगदान नहीं कर सकता, जबतक इन्द्रियोंका योग्य देशमें अवस्थित अर्थके साथ सम्बन्ध न हो। इसलिए, इन्द्रिय और पदार्थका सम्बन्ध रूप सन्निकर्ष ( इन्द्रिय- सन्निकर्ष) ही प्रमाण है, इन्द्रिय-व्यापार आदि नहीं । तथा बौद्धोंने प्रमेयनिरूपक ज्ञानको स्वसंवेदी मानते हुए प्रमा ( तद्वत् में तत्प्रकारक ज्ञान ) के करणके रूपमें सारूप्य तदाकारता या योग्यताको ही प्रमाण स्वीकार किया है। इस प्रकार, प्रभाकरके ज्ञातृव्यापार, जयन्तभट्टके कारकसांकल्य, सांख्योंके इन्द्रियव्यापार, योगों के इन्द्रियसन्निकर्ष तथा बौद्धोंके ज्ञानगत सारूप्य तदाकारता एवं योग्यतारूप प्रमाणलक्षणको तर्कपूर्वक अस्वीकार करते हुए आचार्य नरेन्द्रसेनने 'स्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं', अर्थात् प्रत्यक्ष-परोक्षरूप ज्ञानको निर्दुष्ट प्रमाणलक्षण सिद्ध किया है । आचार्य नरेन्द्रसेनने, प्रमाणतत्त्वकी परीक्षा के बाद अपनी इस कृतिके द्वितीय प्रकरण में प्रमेयतत्त्वकी परीक्षा की है । प्रमेयके सामान्य स्वरूप में सभी तार्किक एकमत हैं । विवाद केवल उसके विशेष स्वरूपमें है । सांख्य प्रमाणके द्वारा प्रमीयमाण प्रमेयका विशेष स्वरूप सामान्य ( प्रधान - प्रकृति) को मानते हैं । बौद्ध उसे विशेष (स्वलक्षण) रूप स्वीकार करते हैं । वैशेषिक सामान्य और विशेष दोनों परस्पर निरपेक्ष या स्वतन्त्रको प्रमाणका विषय या प्रमेय मानते हैं और वेदान्ती परमपुरुष या ब्रह्मको प्रमेयके रूप में ग्रहण करते हैं । किन्तु, आचार्य नरेन्द्रसेनका मत है कि वस्तु कथंचित् सामान्य और कथंचित् " विशेष रूप है और यही कथंचित् सामान्यविशेषात्मक, एकानेकात्मक अथवा भेदाभेदात्मक या उभयात्मक ( अनेकान्तात्मक ) वस्तु ही प्रमेय अर्थात् प्रमाणका विषय है। इस प्रकार उन्होंने अपनी 'प्रमाणप्रमेयकलिका' में यही अनेकान्तात्मक दृष्टि प्रस्तुत की है और इसे सप्त भंगी प्रक्रिया द्वारा सिद्ध किया है, जिसका निष्कर्ष यह है कि प्रमाण और प्रमेयके सम्यक् ज्ञानसे अज्ञान दूर होता है । प्रमाण - प्रमेयके सम्यग्ज्ञानसे सम्पन्न व्यक्ति ही अहितका त्याग, हितका उपादान अथवा उपेक्षणीय की उपेक्षा करनेमें भी समर्थ होता है । 'प्रमाणप्रमेयकलिका' के विद्वान् सम्पादक तथा जैन परम्परा के कूटस्थ शास्त्रज्ञ आचार्य पं० व रबारीलाल कोठियाजो ने आचार्य नरेन्द्रसेन के मूल विषयको प्रतिपादनकी दृष्टिसे, कुल ५८ अनुच्छेदों में विभक्त किया है और हिन्दी में लिखित अपनी बृहत् प्रामाणिक 'प्रस्तावना' में प्रमाण- प्रमेय कलिकागत प्रमाण और - १०६ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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