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________________ हुआ। यह प्रतिपादित किया गया कि सम्यक-श्रद्धानी व्यक्ति यदि अन्य दर्शनोंको, मिथ्या-मतावलम्बी विचार वाले शास्त्रोंको पढ़े, तो भी सम्यक श्रतका हो अध्ययन-जैसा होगा। अन्य शास्त्रोंका अध्ययन कर, उनपर तार्किक-प्रहार करना जैनोंके लिए सुगम हो गया । जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार-एक विशिष्ट कृति इस प्रकार जैन दर्शनके क्षेत्रमें ज्ञान-मीमांसा व प्रमाण-मीमांसाका विकास होता गया। इसी विकास-क्रमको दष्टिगत रख कर जैन क्षेत्रमें स्वनामधन्य पदवाक्यप्रमाणपारावारीण डॉ० दर कीठियाने 'जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार. ऐतिहासिक व समीक्षात्मक अध्ययन' कृति प्रस्तुत कर, जैन तार्किकोंके भारतीय दर्शनके क्षेत्रमें योगदानसे परिचित कराया है । इस शोध-प्रबन्धपर काशी हिन्दू विश्वविद्यालयने इन्हें शोध-उपाधि (पी-एच० डी०) १९६९ ई० में प्रदान की थी। इसका प्रकाशन वीरसेवामन्दिरट्रस्ट, वाराणसी द्वारा १९६९ ई० में किया गया । विद्वान् लेखकने जैन व जैनेतर-सभी दर्शनोंका तुलनात्मक व समीक्षात्मक शोध प्रस्तुत किया है, जिससे यह पुस्तक प्रत्येक दर्शन-अध्येताके लिए अनिवार्य पाठ्यपुस्तक बन गई है। ५ अध्यायोंमें विभक्त है, और कुल १३ परिच्छेद हैं । प्रथम अध्यायमें प्रस्तावना है। इसके चार परिच्छेद हैं, जिनमें क्रमशः (१) भारतीय साहित्यमें प्राप्त अनुमानस्वरूपका उद्भव-विकास, (२) जैन परम्परामें अनुमानका विकास, (३) संक्षिप्त अनुमान-विवेचन (अन मान-स्वरूप, पक्षधर्मता, अनुमान भेद अनुमानावयव, अनुमान-दोष), (४) भारतोय अनुमान और पाश्चात्य तर्कशास्त्र (तुलनात्मक अध्ययन)- इन विषयोंका विवेचन है । द्वितीय अध्यायमें जैन प्रमाणका विवेचन है। इसमें दो परिच्छेद है, जिनमें क्रमशः (१) जैन प्रमाणवाद, प्रमाणका स्वरूप, भेद, अनुमानका प्रमाणोंमें स्थान आदि, (२) जैनागमके आलोकमें अनुमानका प्राचीनतम स्वरूप, महत्त्व, परिभाषा, अनुमानमें अर्थापत्ति व अभाव आदिका अन्तर्भाव-ये विषय चर्चित तृतीय अध्यायमें अनुमानके विविध भेदों व व्याप्तिका निरूपण है। इसमें दो परिच्छेद हैं जिनमें क्रमशः विवेचित विषय इस प्रकार हैं-(१) भारतीय दर्शनोंमें अनुमानके भेद, अनु मानके स्वार्थ व परार्थ १. ज्ञेयः परसिद्धान्तः सपक्षबलनिश्चयोपलब्ध्यर्थम् (सिद्धसेनद्वात्रिंशिका, ८।९)। शब्दविद्यार्थशास्त्रादि ___ चाध्येयं नास्य दुष्यति । सुसंस्कारप्रबोधाय वैयात्यख्यातयेऽपि च ।। (आदिपुराण, ३८।११९) । २. सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतं तु मिथ्याश्रुतमपि सम्यक्-श्रुततया परिणमति सम्यग्दृशाम् (स्याद्वादमंजरी, २३।२७४)। ___ द्र० आवश्यक-नियुक्ति-पृ० ४७, विशेषावश्यकभाष्य, ९५६-५७ । ३. जयन्ति निजिताशेषसर्वथैकान्तनीतयः। सत्यवाक्याधिपाः शश्वद् विद्यानन्दा जिनेश्वराः ।। (प्रमाण परीक्षा-१) ॥ आप्तोपशमनुल्लंघ्यम् अदृष्टेष्टविरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत् सावं शास्त्रं कापथघट्टनम् ।। (रत्नकरण्डश्रावकाचार, ११९)। सरस्वतिश्वरविहारभूमयः समन्तभद्र प्रमुखा मुनीश्वराः । जयन्ति वाग्वज्रनिपातपाटितप्रतीपराद्धान्तमहीध्रकोटयः ॥ (गद्य चिन्तामणि) । समन्तभद्रोऽजनि भद्रमूर्तिस्ततः प्रणेता जिनशासनस्य । यदीववाग्वजकठोरपादश्चूर्णीचकार प्रतिवादिशैलान् ।। (श्रवणवेल्गोलशिलालेख नं० १०८, २५८) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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