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________________ चरण "मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृतां" गृद्धपिच्छ (उमास्वामी) का न होकर सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद आचार्यका है। लेकिन डा० कोठियाने अपने प्रबल प्रमाणोंसे यह सिद्ध कर दिया है कि उक्त मंगलाचरण सूत्रकार गृद्धपिच्छका ही मूल है, पूज्यपाद आचार्यने उसे अपना लिया है । इसके अतिरिक्त "तत्त्वार्थसूत्रमें न्यायशास्त्रके बीज" एवं "तत्त्वार्थसूत्रकी परम्परा" दोनों हो खाजपूर्ण लेख हैं, जिनमें डा० कोठियाने विभिन्न विषयोंका पर्याप्त मन्थन किया है। परिशीलनका चौथा प्रमुख विषय आचार्य समन्तभद्रका सर्वांगीण विवेचन है । ग्रन्थमें समन्तभद्रसे सम्बन्धित निम्न लेखोंका संग्रह किया गया है स्वामी समन्तभद्र और जैनदर्शनको उनकी देन । नियुक्तिकार भद्रबाहु और समन्तभद्र नागार्जुन और समन्तभद्र दिङ्नाग और समन्तभद्र कुमारिल और समन्तभद्र धर्मकीति और समन्तभद्र गन्धहस्तिमहाभाष्य देवागम-आप्तमीमांसा युक्त्यनुशासन रत्नकरण्डकश्रावकाचारकी प्राचीनतापर अभिनव रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रप्रकाश की कृति है रत्नकरण्डकटीका और उसके कर्ताका समय उक्त १२ निबन्धोंमें आचार्य समन्तभद्रकी विभिन्न रूपमें चर्चा की गयी है । फिर चाहे उनकी वह जैनदर्शनको देन हो अथवा वैदिक एवं बौद्ध दार्शनिकोंके साथ उनका तुलनात्मक अध्ययन। इस तरह प्रथम बार एक साथ एक ही आचार्यपर विभिन्न बिन्दुओंसे जो चर्चा की गयी है वह सर्वथा श्लाघनीय है। डा० कोठिया स्वामी समन्तभद्रकी दार्शनिक क्षमताओंके अतिरिक्त उनके विशाल एवं प्रभावक व्यक्तित्वको प्रकाशमें लानेमें सफल हुये हैं । उनका यह अध्ययन दार्शनिक इतिहासके वेजोड़ पृष्ठ हैं। परिशीलनका पंचम भाग है "आचार्य विद्यानन्द" । समन्तभद्रके समान ही विद्यानन्द भी जैनदर्शनके प्रमख प्रस्तोता थे। उनके द्वारा रचित आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा. सत्यशासनपरीक्षा जैनदर्शनकी नींवके पत्थरके समान हैं, जिनपर उनके परवर्ती आचर्योंने दार्शनिक जगतमें जैन दर्शनको दन्दभि बजायी थी। उनका तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक, अष्टसहस्री एवं यक्त्यनुशासनालंकार जैसे विशाल दार्शनिक टीकाप्रन्थ दर्शनशास्त्रके बड़े-बड़े दिग्गजोंको आश्चर्यचकित करने वाले हैं। यह आचार्य विद्यानन्दका ही चमकार था कि उन्होंने इन ग्रन्थोंकी रचना करने में सफलता प्राप्त की। सामान्य व्यक्तिके लिये तो ऐसे ग्रंथोंका एक बार पारायण करना भी कठिन प्रतीत होता है । डा० कोठियाने विद्यानन्द जैसे प्रतिभासम्पन्न दार्शनिक आचार्यपर जो सामग्री प्रस्तुत की है वह दार्शनिक जगत्के लिए एक महान् उपलब्धि है। डा० कोठियाने भाचार्य विद्यानन्दके भावना-विधि-नियोग, जाति-समीक्षा, व्यवहार और निश्चय द्वारा वस्तु-विवेचन, उपादान-निमित्तका विचार जैसे बिन्दुओंपर नवीन चिन्तन किया है । वास्तवमें डा० साहबने आचार्य पिद्यानन्दका जो विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया है वह जैन दर्शनके लिये नयी उपलब्धि है तथा उसे गौरवास्पद एवं समादरणीय बनाता है। इसी परिशीलनमें डा० कोठियाने आचार्य माणिक्यनन्दिपर दो लेखोंमें अपना चिन्तन प्रस्तुत किया है । आचार्य माणिक्यनन्दि जैनदर्शनके उद्भट तार्किक विद्वान् थे। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्योंके ग्रंथोंका दोहन करके 'परीक्षामुख' के माध्यमसे जैन न्यायको सूत्ररूपमें प्रस्तुत किया था। उनकी यह अमर कृति भारतीय न्याय-सूत्र ग्रंथोंमें विशिष्ट स्थान रखती है और जैन न्यायका प्रतिनिधित्व करती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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