SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदिकाल समन्तभद्रकाल (ई० २०० से ६५० तक) मध्यकाल/अकलंककाल (ई० ६५० से १०५० तक) उत्तरकाल/प्रभाचन्द्रकाल (ई० १०५० से १७०० तक) आचार्य समन्तभद्रके पूर्व भी अनेक आचार्य हुये थे, जिन्होंने जगत्के समक्ष जैनदर्शनकी प्रतिष्ठापना की थी। इनमें आचार्य धरसेन, भूतबलि-पुष्पदन्त एवं कुन्दकुन्दके नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं। लेकिन आचार्य समन्तभद्रने वैदिक एवं बौद्ध दार्शनिकोंकी चनौतीको स्वीकार करके जैनदर्शनकी आधार-शिला स्याद्वाददष्टिका प्रतिपादन जिस ताकिक शैली में किया, उसका डा० कोठियाने अपने निबन्ध 'जनदर्शन और प्रमाणशास्त्र : ऐतिहासिक एवं दार्शनिक पृष्ठभूमि' में अच्छा विवेचन किया है। उनकी निम्न पंक्तियाँ इस सम्बन्धमें पटनीय है *"यद्यपि स्याद्वाद और सप्तभंगीका प्रयोग आगमोंमें भी तदीय विषयोंके निरूपणमें होता था, किन्तु जितना विशद और विस्तृत प्रयोग एवं योजना समन्तभद्रकी कृतियोंमें उपलब्ध है उतना उनसे पूर्व प्राप्त नहीं है। समन्तभद्रने 'नययोगान्न सर्वथा,' 'नयनयविशारदः' जैसे पदप्रयोगों द्वारा सप्तभंगनयोंसे वस्तुकी व्यवस्थाका विधान बनाया और 'कथंचित्ते सदेवेष्ट', 'सदेव सर्व को नेच्छेत स्वरूपादिचतुष्टयात' जैसे वचनों द्वारा उस विधानको व्यवहृत किया है।" डॉ० कोठियाने दर्शन-साहित्यके मध्यकालको अकलंककाल माना है। वास्तवमें समन्तभद्रके पश्चात् अकलंकस्वामीने 'न्यायविनिश्चय' (स्वोपज्ञवृत्ति सहित), सिद्धिनिनिश्चय, प्रमाणसंग्रह और लघीयस्त्रय (स्वोपज्ञवृत्तिसहित) जैसे मौलिक न्यायग्रन्थोंका निर्माण करके जैनदर्शनको आधार-शिलाको और भी मजबूत बना दिया। यहीं नहीं, उन्होंने जैन न्यायकी जो रूपरेखा और दिशा निर्धारित की उसीका अनुसरण उत्तरवर्ती सभी जैन दार्शनिकोंने किया है। इस युगके दार्शनिक आचार्य हैं हरिभद्र, वीरसेन, कुमारनन्दि, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य (प्रथम), वादिराज एवं माणिक्यनन्दि । इन सब आचार्योंने दार्शनिक जगतमें जैन न्यायको उच्चतम स्थान प्राप्त कराने में पूर्ण सफलता प्राप्त की। तीसरा काल प्रभाचन्द्रकाल माना गया है, जिसका समय ई० १०५० से १७०० तक निश्चित किया है। प्रभाचन्द्रद्वारा निबद्ध न्यायकुमुदचन्द्र एवं प्रमेयकमलमार्तण्ड अपने युगकी मौलिक एवं विशाल न्यायकृतियाँ हैं । यद्यपि दोनों ही टीका-ग्रन्थ हैं लेकिन ग्रन्थकार द्वारा कितना ही नया एवं मौलिक विवेचन करनेके कारण दोनों ही टीका-ग्रन्थ मूलग्रन्थके समान बन गये हैं। इस कालमें अभयदेव, अभयचन्द्र एवं मल्लिषण, अभिनव धर्मभूण, यशोविजय जैसे दार्शनिकोंने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। परिशीलनका दूसरा लेख "आचार्य कुन्दकुन्दका प्रकृत वाङ्मय और उनकी देन" है। आचार्य कुन्दकुन्द वर्तमानमें सर्वाधिक बहु चर्चित आचार्य हैं, जिन्होंने अपनी सभी २१ कृतियाँ प्राकृत भाषामें ही निबद्ध करनेका श्रेय प्राप्त किया। डा० कोठियाने आचार्य कुन्दकुन्दकी साहित्यिक, दार्शनिक, तात्त्विक एवं लोककल्याणी दृष्टिका अच्छा विवेचन किया है। दार्शनिक दृष्टिका डा० कोठियाका अध्ययन यद्यपि संक्षिप्त रूपमें ही है किन्तु वह उनका सर्वथा मौलिक चिन्तन है । आचार्य कुन्दकुन्दकी लोककल्याणी दृष्टिका डा० कोठियाने बहुत अच्छा वर्णन किया है । ___"आचार्य गृद्धपिच्छ और उनके तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण' नामक लेख परिशीलनका तीसरा निबन्ध है । डा० कोठिया अत्यधिक तर्कशील विद्वानोंमेंसे हैं । विभिन्न दार्शनिक ग्रन्थोंमें उनकी गहरी पैठ है। ये अपनी बातको तर्कके आधारपर प्रस्तुत करते हैं। कुछ विद्वानोंका मत है कि तत्त्वार्थसूत्रका मंगला१. 'जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन'-पृष्ठप ९। -९२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy