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________________ वैसे देखा जाय तो आप 'ऊपर कुछ और भीतर कुछ' और हैं । आपका बहिः रूप कितना सीधासादा है, पर अन्तर तो गम्भीर ज्ञान और धर्मसिद्धान्तोंसे ठसाठस भरा है, फिर भी आर्जव रूप है । आपका जीवन एक खुली पुस्तक है जिसमें जैसा मन, वैसा वचन और वैसा ही आचरण है। इसीको तो बड़प्पन कहते हैं। अन्तमें भावना भाता हूँ कि आप तनसे स्वस्थ रहें, व मनसे 'स्व-स्थ' रहें, व लोकोत्तर कार्य करते जावें। भावना तो है कि-आप जीवें वर्ष हजार । आपका नाम हो द्वार-द्वार ॥ डॉ० साहबक सम्पर्क में कैसे आया श्री राय देवेन्द्र प्रसाद जैन एडवोकेट, गोरखपुर डॉ० दरबारीलाल कोठियासे मेरी सर्वप्रथम भेंट सन् १९७६ में मूडबिद्रीमें हुई थी। मैं अपनी धर्मपत्नी और छोटे पुत्र राय दीपेन्द्र जैन एवं एक नौकरके साथ तीर्थों की वन्दनाके लिए भारत भ्रमणपर निकला था । जब मैं यात्रा करता हुआ मूडबिद्री पहुँचा, और वहाँ जैनमठमें पूज्य भट्टारक चारुकीर्ति स्वामीसे मिलने गया तो वहाँ उनके पास ठहरे हुए डॉ० साहब सपत्नीक और पं० कैलाशचन्द्र जीसे भी भेंट हो गयी। आप लोग भी वहाँ एक दिन पूर्व ही पहुंचे थे। इस प्रथम साक्षात्कारके पूर्व एक बार डॉ० साहब किसी अन्य कार्यके हेतु गोरखपुर पधारे थे । पर मैं उन दिनों बाहर गया हुआ था । अतः उस समय उनका दर्शन न हो सका। पूज्य भट्टारकजी द्वारा उनके तथा पं० कैलाशचन्द्रजीके सम्मानमें मडबिद्रीके प्रसिद्ध एवं विशाल चन्द्रप्रभु-मन्दिरमें 'लक्षदीपमालिका-उत्सव' आयोजित किया गया था। धर्मस्थलके धर्मनिष्ठ श्री वीरेन्द्र हेगड़े द्वारा इन विद्वानोंका सम्मान किया जाना था । अतएव वे भी पधारे हुए थे। मैं भी उसमें शामिल था। ___ सन् १९७६ में ही मूडबिद्रीके पूज्य भट्टारकजीका चातुर्मास हमारे यहाँ (नन्दन-भवन, गोरखपुर में) हो रहा था । भट्टारकजीने मुझसे डॉ० साहबको बुलानेके लिए कहा। मैं संकोच कर रहा था कि केवल दो दिनोंमें हुई एक बारकी भेंटके आधारपर मैं डॉ० साहबको आनेके लिए कैसे लिखू। फिर भी भट्टारकजीकी प्रेरणापर उन्हें पत्र लिखा । हमें आश्चर्य हुआ कि डॉ० साहब पत्र मिलते ही गोरखपुर आ गये। मेरे निवास स्थानपर उनके प्रवचन और चर्चाएँ हुई। उनसे उनकी विद्वत्ता, सरलता और निरभिमानता आदिकी न केवल मुझपर, अपितु मेरे समस्त परिवारपर छाप पड़ी। उनके अत्मीय व्यवहार एवं आडम्बरहीन व्यक्तित्वने जो हमारे परिवारपर अमिट प्रभाव डाला, उससे हम सब उनके भक्त हो गये । चातुर्मासके पश्चात् पूज्य भट्टारकजीके साथ हम भी सपत्नीक सम्मेद-शिखरकी यात्राके लिए तैयार हो गये । और हमारा प्रथम पड़ाव बनारस में हआ। वहाँ हम दो दिन रहे, और डॉ० साहबके यहाँ काफी रात तक बैठने, धर्मचर्चा करने एवं भट्टारकजीके सम्मानमें समाज द्वारा आयोजित सभामें सम्मिलित होनेका हमें सौभाग्य मिला । इस आयोजनने और उनके साथ हुई बातचीतने हम लोगोंको डॉ० साहबके और अधिक निकट ला दिया। इसके उपरान्त हमारे छोटे लड़केकी शादी जगाधरीके लाला जयकिशन प्रसादकी पोतीसे निश्चित हुई। इस अवसरपर भी मेरे साधारणसे निमन्त्रणको पाकर डॉ० साहब गोरखपुर पधारे। हम सबको बड़ा -८१ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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