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________________ निश्छल सरलता। जो ऊपर है, वही भीतर है। इस सबको मिलाकर जो व्यक्ति बना है, उसका नाम है दरबारीलाल कोठिया। मेरा और उनका परिचय लगभग पैतालिस वर्षोंसे है। इस परिचयको आप चाहें कोई नाम दें-मित्रता, बन्धुत्व, पारस्परिक सम्मान। इस दीर्घकालीन परिचयके बलपर एवं अपने व्यक्तिगत अनुभवके आधारपर मैं कह सकता है कि कोठिया एक विश्वसनीय (reliable) साथी है, निर्भरयोग्य (dependable) मित्र हैं। जो भीतर वही बाहर-पैतालीस वर्षका काल कुछ कम नहीं होता-एक शताब्दीका लगभग आधा काल । इस लम्बे कालमें दुनिया बदल गई, समाज बदल गया, व्यक्ति बदल गये। देशकी राजनीतिकी धुरी बदल गई । सामाजिक राजनीतिके मानदण्ड बदल गये व्यक्तिकी राजनीतिके मूल्य बदल गये। किन्तु कोठिया ! वे नहीं बदले, वही वेष-भूषा, वही आचार, वही व्यवहार, आचारमें वही शुद्धि, व्यवहारमें वही निश्छलता, विचारों में वही दृढ़ता। जिन नैतिक मूल्योंसे उन्होंने अपने व्यक्तित्वका निर्माण किया है, उसे संजोया और संवारा है, उसे किसी परिस्थितिमें भी मलिन नहीं होने दिया। परिवर्तनों और सामयिक लाभोंके झंझावातोंमें भी वह अडिग रहा है, बल्कि वह कालक्रमसे निखरता भी गया है। जैन समाजमें ऐसे विद्वान् आसानीसे मिल जायेंगे, जो 'गंगा गये तो गंगादास और जमुना गये तो जमुनादास' बन जाते हैं और 'फिसल पड़े सो हरहर गंगा' कहने लगते हैं। कैसी विडम्बना है यह कि ये विद्वान् वर्तमान जैन मुनियों और भट्टारकोंको पानी पीकर दिनरात कोसनेसे नहीं अघाते और उन्हों मुनियों और भट्टारकोंकी सभा, सम्मेलनोंमें ख्याति-लाभकी आशामें बिना बुलाये पहँच जाते हैं । वहाँ उनकी प्रशंसा करते हैं, उनके गीत गाते हैं। और सम्मान समेट कर जब घर लौटते हैं तो समची वर्तमान जैन मुनि-संस्था और भद्रारक-संस्थापर गन्दगी उछालकर घृणित राजनीतिका खेल खेलते हैं। मैंने एक समाज-शास्त्रीसे इस सम्बन्धमें पूछा, तो उन्होंने उत्तर दिया-इनकी आस्था चंचल है। इनका साध्य सिद्धान्त-संरक्षण नहीं, ख्याति-लाभ अर्जन करना है। जब साध्य ही पवित्र नहीं, तो साधन कहाँ पवित्र होगा। किन्तु मैंने कोठियाके जीवनव्यवहारको निकटसे देखा है, गहराईसे आँका है। उनकी आस्था साध्य-साधन दोनोंकी शचितामें है । जो उनके भीतर है, वही बाहर है, जो बाहर है, वही भीतर है। भीतर और बाहरकी एकरूपता ही कोठियाका जीवन-दर्शन है, यही उनका जीवन-व्यवहार है । संस्था-शिल्पी-कोठियामें अद्भुत प्रशासनिक क्षमता और रचनात्मक कर्तत्वशक्ति देखनेको मिलती है । जैन समाजकी कई संस्थाओंको मैं जानता हूँ, जिन्होंने अपने उद्देश्योंकी पूर्तिकी दिशामें उल्लेखनीय काम किये थे, किन्तु समय पाकर उनको वृद्धावस्थाको जड़ताने जकड़ लिया। मैं अपने सामाजिक अनुभवके आधारपर कह सकता हूँ कि मनुष्योंके समान संस्थाओंका भी बाल्यकाल, यौवन और वार्धक्य होता है । संस्थाओंका यह वयःपरिवर्तन उसके पदाधिकारियोंके उत्साह अथवा जड़ता, सेवा-भाव या सत्तालोलुपताके कारण होता है । जब समाज के प्रति समर्पित और सेवाव्रती पदाधिकारी संस्थाका दायित्व-भार उठाते है, तब वह संस्था समाजको एक रचनात्मक दिशा और प्रगतिकी प्रेरणा देकर अपनी उपयोगिता सिद्ध करती है। संस्थाओंके जीवनमें उनका यह यौवन-काल अथवा उत्कर्षकाल कहलाता है। किन्तु जब संस्थाओंका दायित्व ऐसे लोगोंके हाथोंमें आ जाता है, जो संस्थाकी उपयोगिता और ख्याति के मूलधनको अपनी ख्याति और सत्ताकी भूख बुझानेके लिये भुनाते रहते हैं, तो एक दिन वह मूलधन चुक जाता है और संस्था रीती हो जाती है। तब वह संस्था सेवा और रचनात्मक कामोंमें नहीं, साइनबोर्डों और लेटर पैडोंपर जीवित रहनेका प्रदर्शन भर करती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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