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________________ कि कोठियाजी के प्रस्तावित अभिनन्दन ग्रन्थ के सम्पादकमंडल में हमारा नाम अग्रस्थानमें रखनेकी स्वीकृति दें, तो बड़ी चिंता हुई और संकोच भी कि अब यात्रा एवं प्रवास अनुकूल नहीं पड़ता, श्रम भी विशेष नहीं हो पाता, तो फिर इस उत्तरदायित्वका निर्वाह करनेके लिए क्या और कितना योगदान दिया जा सकेगा ? मैं अपने सहयोगी बन्धुओंका हृदयसे आभारी हूँ कि उनकी लगन एवं कृपासे कार्यका सम्पादन सुचारु हो गया ।] मैं इस शुभावसरका लाभ उठाते हुए अपने सुहृदवर डॉ० पं० दरबारीलालजी कोठिया के चिरायुष्य तथा जैन दर्शनसंस्कृति - साहित्य-धर्म-समाजकी सेवा में वह उत्तरोत्तर अधिकाधिक सक्रिय बने रहें, एतदर्थ हार्दिक शुभकामनाओं के साथ उनका हृदयसे अभिनन्दन करता हूँ । मेरी आन्तरिक सद्भावना पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री, कटनी वर्तमान शताब्दी के दिगम्बर जैन विद्वानोंकी नामावली में श्रीमान् न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठियाका नाम अग्रगण्य है । शैक्षणिक योग्यताकी तो उनकी न्यायाचार्य पदवी स्वयं प्रमाणस्वरूप हैं, तथा आधुनिक शोधकर्त्ता विद्वानोंकी श्रेणी में उनकी डाक्टरकी उपाधि उनका एक स्थान बता रही है। ये दोनों बातें अनेकत्र पाई जा सकती है। पर भाई कोठियाजीकी अपनी नैसर्गिक योग्यता भी अपूर्व है । सरलस्वभाव तथा भावुकता उनमें अधिक मात्रामें पाई जाती है । छद्मस्थ में गुण और दोष भी होते हैं, पर कोठियाजीमें गुण अधिक हैं । सामाजिक संस्थाओंमें वैतनिक कार्यकाल उनका थोड़ा है पर अवैतनिक सेवाभावी कार्यकाल अधिक । प्रकृत्या कोठियाजी उदार हैं, अतः अनेक संस्थाओंको आर्थिक दान भी आपने अपनी परिस्थिति के अनुसार अधिक-से-अधिक किया है और दिलाया 1 भा० द० जैन विद्वत्परिषद् जैसी गण्यमान्य संस्थाके अनेक वर्ष अध्यक्षपदपर समासीन रहे हैं, भा० द० जैनसंघ मथुराके सदस्य भी रहे तथा अनेक वर्ष उसके मुखपत्र जैन सन्देशके सहसम्पादक भी रहे । श्री गणेश वर्णी जैन ग्रंथमालाके मानद प्रधानमंत्री पदपर रहकर उसकी अनेक वर्ष सेवा कर उसे समुन्नत बनाया । वीरसेवामन्दिर ट्रष्ट सरसावाके सञ्चालक व मंत्री हैं । यहाँ यह स्मरण रखने योग्य है कि इस संस्थाके संस्थापक स्व० स्वनामधन्य पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार थे । उन्होंने अपनी सम्पत्तिका बहुभाग इस संस्थामें लगाया था । इसे बाबू छोटेलालजी कलकत्ताने जिनवाणीभक्तिकी प्रेरणासे साहु शान्तिप्रसादजी के सहयोग से बढ़ाया, जो अब साहित्यिक क्षेत्रमें श्रेष्ठ कार्य कर रही है । डॉ० कोठिया पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार के साहित्यिक दत्तक पुत्र हैं । दत्तक पुत्र जैसे अपने कुलको परम्पराका उत्तम निर्वाह करते हैं । ये साहित्यिक दत्तक पुत्र डॉ० कोठिया भी अपने उस पदका पूर्ण निर्वाह करते हैं । T मुझे डॉ० कोठिया के साथ सामाजिक क्षेत्र में अनेक संस्थाओं में काम करना पड़ा है। अतः गहरा परिचय मुझे उनका है। बीना-वारहा क्षेत्र प्रतिष्ठा में आचार्य विद्यासागरजीका प्रवचन हो रहा था । जनता ठसाठस भरी थी । बैठनेका स्थान न था । कोठियाजी कुछ पीछे आए। खड़े थे, मैंने आगे बुलाया, सो किसी प्रकार वहाँ तक आ गए, पर बोले- यहाँ स्थान तो बैठनेका नहीं है। मैंने कहा- मेरी गोद में तो स्थान है और मैंने गोद में बैठा लिया । वे बैठ गये । प्रवचन सुनने लगे । यह नमूना था उनकी सरलता तथा मेरे प्रति आदर व स्नेहभावका । - ५५ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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