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________________ भिण्ड-भदावर संभागमें गोलाराड और गोलशृंगार अन्वयके परिवार निवास करते हैं वैसे ही ग्वालियरसे नातिदूर महोवा, छतरपुर, बड़ा मलहरा आदि प्रदेश में गोलापूर्व अन्वयके परिवार बहुलतासे निवास करते हैं । इसलिये अतीत कालमें इस पूरे सम्भागको गोलाराड् कहा जाता रहा हो तो कोई आश्चर्य नहीं है । गोलापूर्व अन्वयके अभी तक हमने जो पुराने प्रतिमालेख आदि देखे हैं उनसे इस तथ्यकी पुष्टिमें विशेष सहायता मिलती है । इस दृष्टिसे इन प्रतिमालेखोंपर दृष्टिपात कीजिये (१) महोवा सम्भागके छतरपुरके बड़े मन्दिरमें ३९४ ३३ अंगुल अवगाहनावाली श्यामपाषाणनिर्मित तीर्थकर नेमिनाथकी एक मूर्ति प्रतिष्ठित है। उसमें इस अन्वयके उल्लेखके साथ यह लेख अंकित है गोलापूर्वान्वय साधु रास (म) ल (त) द्भाया लटकन तत्सुती सांतन-आल्हणौ अरिष्टनेमिजिन प्रणमतः श्रेयसे सदा । संवत् १२०५ माघसुदी ५ रवौ । (२) श्रीमद् गोलापूर्वान्वये श्रेष्ठि कूकात्मज श्रेष्ठिश्री वीसल साद (ह) अनुज साधु श्री सोढस्तत्प्रिया जाहलिस्तत्सुतः श्रेष्ठि श्री विक्रमादित्यस्तद्धार्या श्रीमती तत्सुतौ साधु श्री लक्ष्मादित्यकुलादित्यौ नित्यं नेमिनाथं प्रणमतः श्रेयसे भक्त्या सम्वत् १२०२ चैतसुदी १३ बुद्धे श्री मन्मदनवम्म राज्ये।। (३) लगभग इसी वि० सम्वत्के दो जिनबिम्ब महोवाने ले जाकर ललितपुरके क्षेत्रपाल जिनालयमें प्रतिष्ठित किये गये हैं। उनमेंसे एक मति भ० अभिनन्दनाथ जिनको है। दोनों श्याम वर्णके पाषाणसे निर्मित है । दोनोंकी बड़ी अवगाहना है । दोनोंके लेखोंमें महोवा नगरका नाम अंकित है। ___इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि लगभग हजार वर्ष पूर्व भी इस सम्भागमें इस अन्वयके परिवार बहुलतासे निवास करते रहे हैं। और यह हमारी कोरी कल्पना नहीं है, क्योंकि अहारक्षेत्रके जो मूर्तिलेख हमारे सामने उपस्थित हैं उनमें इसी कालके अधिक लेख इसी अन्वयसे सम्बन्ध रखते हैं। इससे भी इसी तथ्यकी पुष्टि होती है, क्योंकि इस दृष्टि से मलहरा और टीकमगढ़ सम्भाग महोवा सम्भागके अन्तर्गत ही आते हैं । महोवा, छतरपुर, बड़ा मलहरा, टीकमगढ़, और मड़ावरासे लगा हुआ जो पूरा प्रदेश अवस्थित है वही इस अन्वयका चिरकालसे निवास स्थान बना चला आ रहा है। लगता है कि किसी समय जैसे परवार अन्वयका चंदेरी पाटनगरके रूप में प्रसिद्ध था और जैसे गोलाराड अन्वयका भिण्ड आज भी पाटनगर बना हुआ है उसी प्रकार हजार-आठसौ वर्ष पूर्व इस अन्वयका महोवा पाटनगर रहा है। इस दृष्टिसे महोवा और उसके आस-पासके प्रदेशको खोजबीन करना आवश्यक प्रतीत होता है। जिस सम्भागमें इस अन्वयके परिवार बहुलतासे बसते आ रहे हैं उसी सम्भागमें द्रोणगिरि, रेशंदोगिरि, अहारजी और पपौराक्षेत्र भी अवस्थित है। अतः इन क्षेत्रोंमें हुए मन्दिर-निर्माण, जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा आदि कार्योंपर दृष्टिपात करनेसे लगता है कि इन क्षेत्रोंको उजागर करने में भी अन्य अन्वयोंके समान इस अन्वयका पूर्व कालमें प्रमुख हाथ रहा है। कुछ समय पहले श्री डा० दरबारीलालजीसे भेंट होनेपर इस दिशामें काम करने का मैंने संकेत किया था। इस ओर तत्काल उनका ध्यान भले ही न गया हो, यह विषय ऐसा है कि दृष्टिसम्पन्न कतिपय सेवाभावी बन्धु यदि इस दिशामें प्रयत्नशील हों तो ऐतिहासिक दृष्टिसे अति उपयोगी एक कमीकी पूर्ति हो सकती है। यह इस अन्वयका वर्तमानमें उपलब्ध हजार-आठसौ वर्ष पूर्वका संक्षिप्त इतिहास है। इससे इस अन्वयमें हए प्राचीन पुण्य पुरुषों के जीवनपर प्रकाश तो पड़ता ही है। साथ ही उनके द्वारा किये गये श्री जिनमन्दिर-निर्माण आदि मंगलमय कार्योंपर भी प्रकाश पड़ता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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