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________________ [ ५६ ] जैन संस्कृत महाकाव्यों में कविचक्रवर्ती कीर्तिराज उपाध्यायकृत नेमिनाथ महाकाव्य को गौरवमय पद प्राप्त है । इसमें जैन धर्म के बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के प्रेरक चरित्र के कतिपय प्रसंगों को महाकाव्योचित विस्तार के साथ, बारह सर्गों के व्यापक कलेवर में प्रस्तुत किया गया है । कीर्तिराज कालिदासोत्तर उन इने-गिने कवियों में हैं, जिन्होंने माघ एवं हर्ष की कृत्रिम तथा अलंकृतिप्रधान शैली के एकछत्र शासन से मुक्त होकर अपने लिये अभिनव सुरुचिपूर्ण मार्ग की उद्भावना की है । नेमिनाथ काव्य भावपक्ष तथा कलापक्ष का जो मंजुल समन्वय विद्यमान है, वह ह्रासकालीन कवियों की रचनाओं में अतीव दुर्लभ है । पाण्डित्य प्रदर्शन तथा बौद्धिक विलास के उस युग में नेमिनाथ महाकाव्य जैसी प्रसादपूर्ण कृति की रचना करने में सफल होना कीर्तिराज की बहुत बड़ी उपलब्धि है । नेमिनाथ महाकाव्य का महाकाव्यत्व प्राचीन भारतीय आलङ्कारिकों ने महाकाव्य के जो मानदण्ड निश्चित किये हैं, उनकी कसौटी पर नेमिनाथकाव्य एक सफल महाकाव्य सिद्ध होता है । शास्त्रीय विधान के अनुरूप यह सम्बद्ध रचना है तथा इसमें, महाकाव्य के लिये आवश्यक, अष्टाधिक बारह सर्ग विद्यमान हैं । धीरोदात्त गुणों से युक्त क्षत्रियकुल- प्रसूत देवतुल्य नेमिनाथ इसके नायक हैं। नेमिनाथ महाकाव्य में शृङ्गार रस की प्रधानता है । करुण, वीर तथा रौद्र रस का आनुषंगिक रूप में परिपाक हुआ है । महाकाव्य के कथानक का इतिहास प्रख्यात अथवा सदाश्रित होना आवश्यक माना गया है। नेमिनाथकाव्य का कथानक लोकविश्रुत नेमिनाथ के चरित से सम्बद्ध है । चतुर्वर्ग में से धर्म तथा मोक्ष की प्राप्ति इसका लक्ष्य है । धर्म का अभिप्राय यहाँ नैतिक उत्थान तथा मोक्ष का तात्पर्य आमुक अभ्युदय है । विषयों तथा अन्य सांसारिक आकर्षणों का परित्याग कर परम पद प्राप्त करने की ध्वनि, काव्य में सर्वत्र सुनाई पड़ती है । Jain Education International महाकाव्य की रूढ़ परम्परा के अनुसार नेमिनाथमहाकाव्य का प्रारम्भ नमस्कारात्मक मंगलाचरण से हुआ है, जिसमें स्वयं काव्यनायक नेमिनाथ की चरणवन्दमा की गयी है। वन्दे तन्नेमिनाथस्य पदद्वन्द्व श्रियाम्पदम् । नाथैरसेवि देवानां यद्भृङ्गेरिव पङ्कजम् ॥ ११ ॥ आलंकारिकों के विधान का पालन करते हुए काव्य के आरम्भ में सज्जन प्रशंसा तथा खलनिन्दा भी की गयी है । यदुपति समुद्रविजय की राजधानी के मनोरम वर्णन में कवि ने सन्नगरीवर्णन की रूढ़ि का निर्वाह किया है । काव्य का शीर्षक चरितनायक के नाम पर आधारित है, तथा प्रत्येक सर्ग का नामकरण उसमें वर्णित विषय के अनुरूप किया गया है, जिससे विश्वनाथ के महाकाव्यीय विधान की पूर्ति होती है । अन्तिम सर्ग के एक अंश में चित्रकाव्य की योजना करके जैन कवि ने हेमचन्द्र वाग्भट आदि जैनाचार्यों के विधान का पालन किया है । छन्द प्रयोग सम्बन्धी परम्परागत नियमों का प्रस्तुत काव्य में आंशिक रूप से निर्वाह हुआ है। काव्य के पांच सर्गों में तो प्रत्येक सर्ग में एक छन्द की प्रमुखता है तथा सर्गान्त में छन्द बदल जाता है । यह साहित्याचार्यों के विधान के सर्वथा अनुरूप है । किन्तु शेष सात सर्गों में नाना वृत्तों का प्रयोग शास्त्रीय नियमों का स्पष्ट उल्लंघन है क्योंकि महाकाव्य में छन्दवैविध्य एक-दो सर्गों में ही काम्य माना गया है । महाकाव्यों की मान्य परिपाटी के अनुसार नेमिनाथकाव्य में नगर, पर्वत, प्रभात, वन, दूतप्रेषण ( प्रतीकात्मक ), युद्ध, सैन्य प्रयाण, पुत्रजन्म, जन्मोत्सव, षड् ऋतु आदि वर्ण्यविषयों के विस्तृत वर्णन पाये जाते हैं । वस्तुतः काव्य में इन्हीं वस्तुव्यापार वर्णनों का प्राधान्य है । परम्परागत नियमों के अनुसार महाकाव्य में पांच नाट्यसन्धियों की योजना आवश्यक मानी गयी है । नेमिनाथ महाकाव्य का कथानक यद्यपि अतीव संक्षिप्त है, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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