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________________ [ ५६ ] प्रथम तथापि इसमें पांचों सन्धियाँ खोजी जा सकती हैं। सर्ग में शिवादेवी के गर्भ में जिनेश्वर के अवतरित होने में मुखसन्धि है । इसमें कथानक के फलागम का बीज निहित है तथा उसके प्रति पाठक की उत्सुकता जाग्रत होती है । द्वितीय सर्ग में स्वप्नदर्शन से लेकर तृतीय सर्ग में पुत्रजन्म तक प्रतिमुख सन्धि स्वीकार की जा सकती है, क्योंकि मुखसन्धि में जिस कथाबीज का वपन हुआ था, वह यहाँ कुछ अलक्ष्य रहकर पुत्रजन्म से लक्ष्य हो जाता है। चतुर्थ सर्ग से अष्टम सर्ग तक गर्भसन्धि की योजना मानी जा सकती है। सूतिकर्म, स्नात्रोत्सव तथा जन्मोत्सव में फलागम काव्य के गर्भ में गुप्त रहता है। नवें से ग्यारहवें सर्ग तक एक ओर नेमिनाथ द्वारा वैवाहिक प्रस्ताव स्वीकार कर लेने से मुख्यफल की प्राप्ति में बाधा उपस्थित होती है, किन्तु दूसरी ओर वधूगृह में वध्य पशुओं का करुणक्रन्दन सुनकर उनके निर्वेदग्रस्त होने तथा दीक्षा ग्रहण करने से फलप्राप्ति निश्चित हो जाती है । अतः यहाँ विमर्श सन्धि का सफल निर्वाह हुआ है । ग्यारहवें सर्ग के अन्त में केवलज्ञान तथा बारहवें सर्ग में परम पद प्राप्त करने के वर्णन में निर्वहण सन्धि विद्यमान है । इन शास्त्रीय लक्षणों के अतिरिक्त नेमिनाथ महाकाव्य में महाकाव्योचित रसव्यंजना, भव्य भावों की अभिव्यक्ति, शैली की मनोरमता तथा भाषा को उदात्तता विद्यमान हैं । नेमनाथमहाकाव्य को शास्त्रीयता नेमिनाथकाव्य पौराणिक महाकाव्य है अथवा इसकी गणना शास्त्रीय शैली के महाकाव्यों में की जानी चाहिये, इसका निश्चयात्मक उत्तर देना कठिन है । इसमें एक ओर पौराणिक महाकाव्यों के तत्त्व वर्तमान हैं, तो दूसरी ओर यह शास्त्रीय महाकाव्यों की विशेषताओं से भूषित है । पौराणिक महाकाव्यों की भाँति इसमें शिवादेवी के गर्भ में जिनेश्वर का अवतरण होता है जिसके फलस्वरूप उसे चौदह स्वप्न दिखाई देते हैं। दिक्कुमारियाँ नवजात शिशु Jain Education International का सूतिकर्म करने के लिये आती हैं । उसका स्नात्रोत्सव इन्द्रद्वारा सम्पन्न होता है । दीक्षा से पूर्व भी वह भगवान् का अभिषेक करता है । पौराणिक शैली के अनुरूप इसमें दो स्वतन्त्र स्तोत्रों का समावेश किया गया है । कतिपय अन्य पद्यों में भी जिनेश्वर का प्रशस्तिगान हुआ है । जिनेश्वर के जन्मोत्सव में देवांगनाएँ नृत्य करती हैं तथा देवगण पुष्पवृष्टि करते हैं । पौराणिक महाकाव्यों की परिपाटी के अनुसार इसमें नारी को जीवन-पथ की बावा माना गया है। काव्यनायक दीक्षा लेकर केवलज्ञान तथा अन्ततः परमपद प्राप्त करते हैं। उनकी देशना का समावेश भी काव्य में हुआ है । इन समूचे पौराणिक तत्त्वों के विद्यमान होने पर भी नेमिनाथ काव्य को पौराणिक महाकाव्य मानना न्यायोचित नहीं है । इसमें शास्त्रीय महाकाव्य के लक्षण इतने पुष्ट तथा प्रचुर हैं कि इसकी यत्किंचित पौराणिकता उनके सिन्धु प्रवाह में पूर्णतया मज्जित हो जाती है । हासकालीन शास्त्रीय महाकाव्यकी प्रमुख विशेषता - वर्ण्य विषय तथा अभिव्यंजना शैली में वैषम्य - इसमें भरपूर मात्रा में वर्तमान है । शास्त्रीय महाकाव्यों की भाँति नेमिनाथमहाकाव्य में वस्तुव्यापारों की विस्तृत योजना हुई है । इसकी भाषा में अद्भुत उदात्तता तथा शैली में महाकाव्योचित प्रौढ़ता एवं गरिमा है । चित्रकाव्य की योजना के द्वारा काव्य में चमत्कृति उत्पन्न करने तथा अपना रचनाकौशल प्रदर्शित करने का प्रयास भी कवि ने किया है । अलंकारों का भावपूर्ण विधान, रस, व्यंजना, प्रकृति तथा मानव सौन्दर्य का हृदयग्राही चित्रण, सुमधुर छन्दों का प्रयोग आदि शास्त्रीय काव्यों की ऐसी विशेषताएँ इस काव्य में हैं कि इसकी शास्त्रीयता में तनिक भी सन्देह नहीं रह जाता । वस्तुत: नेमिनाथमहाकाव्य की समग्र प्रकृति तथा वातावरण शास्त्रीय शैली के महाकाव्य के अनुसार है । अतः इसे शास्त्रीय महाकाव्यों की कोटि में स्थान देना सर्वथा उपयुक्त है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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