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________________ श्री कीर्तिरत्नसरि रचित नेमिनाथ महाकाव्य [ प्रो0 सत्यव्रत 'वृषित'] [ खरतरगच्छ के महान् आचार्यों ने संघ-व्यवस्था बड़ी सूझ-बूझ से की। मुख्य पट्टधर-युगप्रधान आचार्य के साथ-साथ सामान्य आचार्य के रूप में उपयुक्त व्यक्तियों को आचार्य पद दिया जाता रहा है जिससे पट्टघर के स्वर्गवास हो जाने के बाद कोई अव्यवस्था नहीं होने पावे। भावी पट्टधर स्वर्गवासी आचार्य के अन्तिम समय में समीप न होने पर यथासमय उस पद पर प्रतिष्ठित करने के लिए सामान्य आचार्य को भोलावण दे दी जाती थी और वे उन युगप्रधानाचार्य के संकेतानुसार योग्य स्थान और शुभमुहर्त में पूर्ववर्ती आचार्य की सूरि मन्त्राम्नाय परंपरा को देते हुए बड़े महोत्सव के साथ नये गच्छनायक का पट्टाभिषेक करवा देते थे। आचार्य बद्ध मानसूरि ने जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि को आचार्य पद दिया, इनमें से जिनेश्वरसूरि पट्टधर बने और बुद्धिसागरसूरि उनके सहयोगी रहे। इसके बाद जिनचद्रसूरि संवेगरंगशालाकर्ता और अभयदेव सूरि को आचार्य पद दिया गया इनमें से जिनचन्द्रसूरि पट्टधर बने और उनके स्वर्गवास के बाद अभयदेवसूरि गच्छनायक बने । यों अभयदेवसूरि के वर्द्धमानसूरि आदि कई विद्वान शिष्य थे पर जिनवल्लभगणि में विशेष योग्यता का अनुभव कर उन्होंने प्रसन्नचंद्रसूरि को यथासमय जिनवल्लभगणि को अपने पट्ट पर स्थापित करने की आज्ञा दी थी। उसकी पूर्ति न कर सकने के कारण देवभद्राचार्य ने काफी समय के बाद अभयदेवसूरि के पट्ट पर जिनवल्लभसूरि को प्रतिष्ठित किया। अल्पकाल में ही उनका स्वर्गवास हो जाने पर इन्हीं देवभद्रसूरिजी ने सोमचन्द्र गणि को जिनवल्लभसूरि के पट्ट पर अभिषिक्त किया। इसी तरह मणिधारी जिनचन्द्रसूरि ने अपने अन्तिम समय में निकटवर्तों गुणचन्द्रगणि को अपने पट्टधर का जो संकेत दिया था तदनुसार चौदह वर्ष की आयु वाले जिनपतिसूरिजी को उनके पट्ट पर स्थापित किया गया। इस परम्परा में पन्द्रहवीं शताब्दी के आचार्य जिनभद्रसूरिजी ने उ० कीतिराज को आचार्य पद देकर कीतिरत्नसरि के नाम से प्रसिद्ध किया। उन्होंने ही जिनभद्रसूरिजी के पट्ट पर जिनचन्द्रसूरिजी को स्थापित किया था। आचार्य कोतिरत्नसूरि अपने समय के बहुत बड़े विद्वान और प्रभावक व्यक्ति थे। उनके सम्बन्ध में सं० १९६४ में प्रकाशित हमारे ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में आवश्यक जानकारी दी गई थी। उनके ५१ शिष्य हुए, जिनमें गुणरत्नसूरि, कल्याणचन्द्र आदि उल्लेखनीय रहे हैं । कीतिरत्नसूरिजी की प्राचीनतम मूत्ति नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ में पूजित है। इनकी शिष्य-सन्तति का बहुत विस्तार हुआ। कीतिरत्नसूरि शाखा आजतक चली आ रही है जिसमें पचासों कवि, विद्वान हुए हैं, उसी में आचार्य श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी जैसे गीतार्थ आचार्य-शिरोमणि हुए हैं । कीतिरत्नसू रिजी की शिष्य-परम्परा ने अनेक स्थानों में उनके स्तूप-पादुकादि स्थापित करवाये और बहुत से स्तवन-गीतादि निर्माण किये। उन्हीं महापुरुष के एक महाकाव्य का आलोचनात्मक अध्ययन गवर्नमैण्ट कालेज श्रीगंगानगर के संस्कृत : . विभाग के अध्यक्ष प्रो. सत्यव्रत प्रस्तुत कर रहे हैं। -संपादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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