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________________ । २२ । श्रीजिनवल्लभसूरिजी के स्वर्गवास के बाद उनके पदपर परम्परा के लिए जातिवाद का प्रश्न ही उपस्थित नहीं देवभद्राचार्य ने सोमचन्द्र गणि को सं० ११६६ वैसाख कृष्ण होना चाहिए। क्योंकि वर्णव्यवस्था के विरोध में ही ६ शनिवार को चितौड़ के वीरचत्य में प्रतिष्ठित किया और सम्पूर्ण श्रमणपरम्परा का शताब्दियों से बल लग रहा है। उनको श्री जिनदत्तसूरि नाम से अभिषिक्त किया। जिनदत्तसूरिजी जैसे युगपुरुष के प्रखर व्यक्तित्व का श्रीजिनदत्तसूरि में श्रीजिनवल्लभसूरिजी के कुछ गुणों ही प्रभाव था कि चैत्यवासियों का प्रचण्ड विरोध होते हुए का अच्छा विकास पाया जाता है। वे अनागमिक किसी भी नूतन चैत्य-निर्माण की पुरातन परम्परा को संभाले भी परम्परा के विरुद्ध शिर ऊंचा करने में संकुचित नहीं रखा। आचार्यश्री ने इतने विराट समुदाय को न केवल होते थे। आयतन अनायतन जैसे विषयों का स्पष्टीकरण इन शांतिमार्ग का उपासक ही बनाया अपितु उनके लिए तथ्यों को स्पष्ट कर देता है। समुचित सामाजिक व्यवस्था का भी निर्देश किया। आचार्य श्रीजिनदत्तसूरिजी के मन में आचार्य पद पर उनका चारित्र्य या संयम इतना उज्ज्वल था कि प्रतिष्ठित होते ही एक बात की चिन्ता उन्हें लगी कि अब उनके तात्कालिक विचार का विरोधी भी लोहा मानते थे । शासन का विशिष्ट प्रभाव फैलाने के लिए मुझे किस ओर परिणाम स्वरूप चैत्यवासी जयदेवाचार्यादि विद्वानों जाना चाहिए। आचार्य के हृदय में यदि विराट और ने आचारमूलक शैथिल्य का परित्याग कर सुविहित-मार्ग प्रशस्त भावना न जगे तो उस में विश्वकल्याण को छोड़कर स्वीकार किया। स्वकल्याण की कल्पना भी असम्भव है। आचार्यवर आचार्य श्रीजिनदत्तसुरिजी के बहुमुखी व्यक्तित्व पर राजस्थान की ओर प्रस्थित हुए। आप क्रमशः अजमेर दृष्टि केन्द्रित करने पर विदित होता है कि वे न केवल उच्च पधारे । यहां के राजा अर्णोराज ने आपको उचित सम्मान कोटि के नेतृत्वसपन्न व्यक्ति थे, अपितु संयमशील साधक दिया। श्रावकों की विशेष प्रेरणा व महाराज के सदुप- होने के साथ-साथ शुद्ध साहित्यकार भी थे। आचार्यवर्य की देश से उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक दक्षिण दिशा की ओर पर्वत के अधिकतर कृतियां मानव जीवन को उच्चस्तर पर प्रतिष्ठानिकट देवमन्दिर बनवाने की भूमि प्रदान को । अर्णोराज पित करने से सम्बद्ध हैं। एवं उस समय के चरित्रहीन आपको बहुत श्रद्धा की दृष्टि से देखता था। अम्बड़श्रावक । के प्रति विद्रोह की चिनगारी है। तथापि की आराधना द्वारा अम्बिकादेवीने आपको युगप्रधान सामाजिक इतिहास की सामग्री कम नहीं है। महापुरुष घोषित किया था। ____ आचार्यश्री की साहित्यिक कृतियाँ संस्कृत, प्राकृन और युगप्रवर के अदभुत कार्य अपभ्रंश भाषा में मिलती हैं जिनका न केवल धार्मिक ___ यों तो आपने अपने कर्मक्षेत्र में अधिकतर मनुष्यों को दृष्टि से महत्व है अपितु भाषा-विज्ञान को दृष्टि से भी सत्पथ पर लाने का सुयश प्राप्त किया, पर आपका सुकुमार अध्ययन के तथ्य प्रस्तुत करते हैं । आचार्यवर्यश्री के साहित्य हृदय अनुकम्पा से ओत-प्रोत होने के कारण एक लाख को अध्ययन को विशेष सुविधाओं के लिए स्तुतिपरक व उपतीस हजार से भी अधिक व्यक्तियों को अपनी तेजोमयी देशिक इस तरह दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। प्रथम औपदेशिक वाणी से हिंसात्मक वृतियों का परित्याग करवा भागमें उन कृतियों का समावेश है जो स्तुति, स्तोत्र साहित्य जैन धर्म में दीक्षिा किया। ये मनुष्य विभिन्न जातियों से संबद्ध हैं । इन कृतियों से परिलक्षित होता है कि आचार्यके थे, कर्ममूलक संस्कारों में विश्वास करने वाली जैन वर्ष एक भावु: कार थे । पूर्वजों के प्रति विश्वस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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