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________________ योगीन्द्र युगप्रधान दादा श्रीजिनदत्तसूरि [ स्वर्गीय उपाध्याय मुनि श्री सुखसागरजी महाराज ] किसी भी राष्ट्र की वास्तविक सम्पत्ति है उस देश की सन्त परम्परा, जिसमें उसकी आत्मा साकार दीखती है । इसलिए संत को हम इस देश को परम्परा का जीवित प्रतीक मान लें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी । एक संत जीवन का अन्त: परीक्षण या विहंगावलोकन उस समय के सम्पूर्ण मानवीय विकासात्मक परम्पराओं के तलस्पर्शी अनुशीलन पर निर्भर है। आचार्य श्री जिनदत्तसूरि उपर्युक्त परम्परा के एक ऐसे ही उदारचेता व्यक्तित्व-संपन्न महापुरुष हैं । आचार्य श्री बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी के महापुरुष थे । तत्कालिक संतों में साहित्यिकों एवं तत्वविदों में इनका स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा है । क्रान्ति उनके जीवन का मूलमन्त्र था । जिनदत्तसूरिजी एक ऐसी विद्रोहात्मक परम्परा के उद्घोषक थे जिन्होंने क्रान्ति के जयघोष द्वारा अतीत से प्रेरणा लेकर भविष्य की शुद्ध परम्परा की नींव डाली । यह उनके प्रखर व्यक्तित्व का ही प्रभाव था कि तात्कालिक विकृतिमूलक परम्पराओं का परिष्कार एवं सांस्कृतिक सूत्र में आबद्ध कर जैनधर्म एवं मुनि समाज पर आयी हुई विपत्तियों का कुशलतापूर्वक सामना किया। जैन संस्कृति के नवयुग प्रवर्तकों में ऐसे महापुरुष की गणना होती है । श्री जिनदत्तसूरिजी सत्याश्रित खरतरगच्छीय परम्परा के एक ऐसे सुदृढ़ स्तंभ थे, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व, साधना और प्रकाण्ड पाण्डित्य के बल पर समाज में जो श्रद्धा का स्थान प्राप्त किया है, वह आज भी अमर है । इनका जन्म गुजरात प्रान्तीय धवलकपुर ( धोलका ) नामक ऐतिहासिक नगर में हुँबड़ जातीय श्रेष्ठिवर्यं वाछिग Jain Education International की धर्मपत्नी वाहड़देवी की रत्नकुक्षि से सं० ११३२ में हुआ था । सुविहित मार्ग प्रकाशक श्रीजिनेश्वरसूरिजी के विद्वान शिष्य धर्मदेव उपाध्याय की आज्ञानुवर्तिनी आर्याओं का वहाँ पर आगमन हुआ । शुभ लक्षण युक्त तेजस्वी बालक को देख पुलकित मन से माता को विशेष रूप से धर्मोपदेश देकर शासन सेवा के प्रति उसमें वातावरण को तैयार हुआ जानकर सूचित पुत्र को गुरु महाराज की सेवा में समर्पित करने की याचना की । जहाँ व्यक्ति-व्यक्ति के रूप में जीवन व्यतीत करना है वहाँ स्वार्थ पनपता है । जहाँ व्यक्ति समष्टि के लिए जीवनोत्सर्ग करता है वहाँ वह अमर हो जाता है । वाहड़देवी को अपने पुत्र को गुरु-समर्पित करते हुए तनिक भी दुःख नहीं हुआ अपितु हर्प हुआ । उसने सोचा कि एक पुत्र यदि संस्कृति की विकासात्मक परम्परा को बल देता है और सारे समाजकी सांस्कृतिक गौरव गरिमा की रक्षा व वृद्धि के लिए कठोरतम साधना स्वीकार करता है तो इस बात से बढ़कर और सौभाग्य की बात हो ही क्या सकती है ? कालान्तर से धर्मदेवोपाध्याय धवलकपुर पधारे और इसे दीक्षित कर सोमचन्द्र नाम से अभिषिक्त किया। विकास के लक्षन बाल्यकाल से ही अंकुरित होने लगते हैं । विद्याध्ययन के क्षेत्र में इनकी प्रतिभा का लोहा अव्यापक वर्ग भी मानते थे । इनकी बड़ी दीक्षा अशोकचन्द्राचार्य के करकमलों द्वारा सम्पन्न हुई जो कि जिनेश्वरसूरि के शिष्य सहदेवमणि के शिष्य थे। हरिसिंहाचार्य के श्रीचरणों में बैठकर आपने सैद्धान्तिक वाचना प्राप्त कर कई मंत्रादि पुस्तकों के साथ ऐसा ऐतिहासिक प्रतीक प्राप्त किया जो आचार्यवर्य के विद्याध्ययन में काम आता था । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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