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________________ [ २३ 1 भावनाओं को लिये हुए थे, महान पुरुषों के प्रति उनके नाम संशयपद प्रश्नोत्तर भी है । कहा जाता है कि भटिण्डा हृदय में उपार आदर और साभाव था। स्वयं उच्च- की एक श्राविका के सम्यक्त्व मूलक कुछ प्रश्न थे जिसके कोटि के विद्वान साहित्यशील एट युगप्रवर्तक होते हुए भी उत्तर में सूरिजी ने इस ग्रन्थ का प्रणयन किया । इससे पता इनकी विनम्रता स्तुति साहित्य में भलीभाँति परिलक्षित चलता है कि उनकी अनुयायिनी श्राविकाएं कितनी उच्चतम होती है। यों तो सर्वाधिष्ठायी स्तोत्र, सुगुरु पारतंत्र्य उत्तरों की अधिकारिणी थीं। स्तोत्र, विघ्न-विनाशी स्तोत्र, श्रुतस्तव, अजितशांति स्तोत्र, चैत्यवंदनकुलक तो प्रत्येक गृहस्थ के लिए विशेष पार्श्वनाथ मंत्र गर्भित स्तोत्र, महाप्रभावक स्तोत्र, चक्र श्वरी पठनीय है। जिसमें श्रावकों के दैनिक कर्तव्य, साधुओं स्तोत्र, सर्वजिन स्तुति आदि रचनाएं उपलब्ध हैं। उन सब के प्रति भक्ति, आयतन आदि का विवेचन खाद्य-अखाद्यादि में गणधर-सार्धशतक का स्थान बहुत ऊँचा है। भगवान विषयों का संवे तात्मक उल्लेख है। महावीर से लेकर तत्काल तक के महान आचार्यों का आचार्यवर्य के उपदेश धर्मरसायन, कालस्वरूपकुलक गुणानुवाद इस कृतिमें कर स्वयं भी कालान्तर से उस कोटि और चर्चरी ये तीनों ग्रन्थ अपभ्रंश में रचे हुए हैं । भाषा में आ गये हैं। यद्यपि आचार्यवर्य को यह कृति बहुत विज्ञान की दृष्टि से अध्ययन योग्य हैं हो। इन ग्रन्थों में बड़ी नहीं है पर उपयोगगिता और इतिहास की दृष्टि उनका प्रकाण्ड पाण्डित्य शास्त्रीय अवगाहन व गंभीर से विशेष महत्व की है। चिन्तन परिलक्षित होता है। साधक की वाणी ही मंत्र है। आचार्य श्री जिनदत्त- उत्सूत्र पदोद्घाटनकुलक, उपदेशकुलक साधक और सूरिजी रुद्रपल्ली जाते हुए एक गाँव में ठहरे। वहाँ एक श्रावकों के आचारमूलक जीवन पर सुन्दर प्रकाश डालते अनुयायी गृहस्थको व्यन्तर देव के द्वारा उत्पीड़ित किया हैं। इनके अतिरिक्त अवस्थाकुलक, विशिका पद व्यवस्था, जाता था। गणधर-सप्ततिका एक टिप्पणी के रूप में वाडीकूलक, शांतिपर्व विधि, आरात्रिकवृत्तानि और लिखकर श्रावक को दी गई उससे न केवल वह पीडा से ही अध्यात्मगीतानि आदि कृतियाँ उपलब्ध है। मुक्त हुआ, अपितु परिस्थितिजन्य आचार्यवर्य का यह ग्रन्थ आचार्यवर्य भ्रमण करते हुए भारत विख्यात ऐतिहाभावी मानव समाज के लिए एक अवलंबन बन गया। सिक नगर अजमेर पधारे। यहीं पर वि० सं० १२११ में __ आचार्य श्री के सम्मुख एक समस्या तो वीतराग के आपका अवसान हुआ। अजमेर से वैसे भी आपका संबन्ध मौलिक औपदेशिक परम्पराओं की सुरक्षा की थी तो काफी रहा है क्योंकि आपके पट्टधर श्री जिनचन्द्रसूरिजी की दूसरी ओर विरोधियों द्वारा अज्ञानमूलक उपदेश के परिवार दीक्षा भी सं० १२०३ फाल्गुन शुक्ला ३ को अजमेर में ही की भी। गरुदेव के औपदेशिक साहित्य में तत्कालीन जैन समाज के समस्त प्रभावशाली आचार्यों में इनका संघर्षों के बीज मिलते हैं। सन्देहदोलावली प्राकृत की १५० गाथाओं में गम्फित स्थान इतना उच्च रहा है एवं इतने स्तुति-स्तोत्र द्वारा है। सम्यक्त्व प्राप्ति, सुगुरु व जैन दर्शन की उन्नति के श्रद्धालु व्यक्तियों ने इनके चरणों पर श्रद्धांजलि समर्पित की लिए यह कृति उत्कर्ष मार्ग का प्रदर्शन करती है एवं । है जो सम्मान किसी भी महापुरुष को प्राप्त नहीं है । ये तात्कालिक गृहस्थों को सुगरुजनों के प्रति किस प्रकार जैन समाज के हृदय सिंहासन पर इतने प्रतिष्ठित हैं कि व्यवहार करें, एवं पासत्यों के प्रति किस प्रकार रहें आदि इनके चरण व दादावाड़ी हजारों की संख्या में पायी बात बड़े विस्तार के साथ कही गई हैं। इसका अपर जाती है। ( अभिभाषण से संकलित ) हुई थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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