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________________ प्रकाण्ड विद्वान और कवि-श्रेष्ठ श्रोजिनवल्लभसूरि नवाङ्गवृत्तिकार आचार्य श्री अभयदेवसूरि के पट्टधर नरवर में भी विधि-चैत्य स्थापित किये । मेवाड़, मालव, श्री जिनवल्लभसूरि जैन-शासन के महान् ज्योतिर्धर थे। मारवाड़ और बागड़ आदि प्रदेशों में इन्होंने सुविहित मार्ग उन्होने चैत्यवास का परित्याग कर अभयदेवसूरिजी से उप- का खूब प्रचार किया। इनके ज्योतिष-ज्ञान और विद्वता सम्पदा ग्रहग की। ये एक क्रान्तिकारी आचार्य और की सर्वत्र प्रसिद्धि हो गई। धारा-नरेश नरवर्म ने एक विशिष्ट विद्वान थे, जिन्होंने विधिमार्ग के प्रचार में प्रबल विद्वान की दी हुई समस्यापूत्ति अपने सभा-पण्डितों से न पुरुषार्थ किया और अनेकों महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का निर्माण कर होते देख, दूरवर्ती श्री जिनवल्लभसूरि को वह समस्या पद जैन साहित्य का गौरव बढ़ाया। कूर्चपुरीय चैत्यवासी भेजा, जिसकी सम्यक् पूर्ति से नृपति बहुत प्रभावित हुए आचार्य श्री जिनेश्वर के आप शिष्य थे । व्याकरणादि समस्त और उनके भक्त हो गए। साहित्य का अध्ययन करने के पश्चात् जैनागमादि साहित्य जिनवल्लभगणि को सं० ११६७ मिती आषाढ़ शुक्ला ६ में निष्णात होने के लिए वाचनाचार्य पद देकर इनके गुरु को चित्तौड़ के वीर विधि-चैत्य में कथाकोष आदि के निर्माता जिनेश्वराचार्य ने अभयदेवसूरिजी के पास भेजा । अभयदेव- देवभद्रसूरि ने आचार्य पद देकर अभयदेवसूरि का पट्टधर सूरि ने इनकी विनयशीलता, असाधारण प्रतिभा को देख घोषित किया। पर चार मास ही पूरे नहीं हो पाये और कर बड़े आत्मीय भाव से आगमादि का अध्ययन करवाया। मिती कात्तिक कृष्ण १२ को इनका स्वर्गवास हो गया। इतना ही नहीं, अभयदेवसूरि के एक भक्त दैवज्ञ ने इन्हें जिनवल्लभसूरि को परवर्ती विद्वानों ने कालिदास के ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन करवा कर उस विषय में भी सदृश कवि बतलाया है। प्राकृत, संस्कृतादि भाषाओं में निष्णात बना दिया। इनकी पचासों रचनायें प्राप्त हैं, इनमें से कई सैद्धान्तिक अभय देवसूरि के पास अध्ययन समाप्त कर जब ये अपने रचनाओं का तो अन्यगच्छीय विद्वान आचार्यों ने टीकाएं गुरु के पास जाने लगे तो उन्होंने कहा कि सिद्धान्तों के रच कर इनकी महत्ता को स्वीकार किया है। अध्ययन का यही सार है कि तदनुसार आचार का पालन चैत्यवास के प्रभाव से जैन मन्दिरों में जो अविधि का किया जाय। विद्यागुरु की इस हित-शिक्षा की उन्होंने प्रवर्तन हो गया था उसका निषेध करते हुए विघिचैत्यों के गांठ बाँध ली और अपने गुरु जिनेश्वर से मिलकर चैत्यवास नियमों को इन्होंने शिलोत्कीर्ण करवाया। संवेगरंगशाला त्याग की आज्ञा प्राप्त कर पाटण-लौट आये और अभयदेव- के संशोधन में भी इनका योग रहा। आपके शिष्यों में सरिजी से उपसम्पदा ग्रहण कर ली। इसके बाद चित्तौड़ रामदेव, जिनशेखरादि कई विद्वान थे। आचार्य देवभद्रसरि आये और चैत्यवासियों को निरस्त कर पार्श्वनाथ और ने सोमचन्द्र गणि को इनके पट्ट पर स्थापित कर जिनदत्तमहावीर चैत्यों की स्थापना की। तदनन्तर नागपुर और सूरि नाम से प्रसिद्ध किया । जिनवल्लभसूरिजी की जीवनी और उनके ग्रन्थों के सम्बन्ध में महो० विनयसागरजी लिखित अध्ययन पूर्ण शोधप्रबन्ध प्रकाशनाधीन हैं। -अगरचंद नाहटा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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