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________________ खरतरगच्छ के साहित्यसर्जक श्रावकगण [ लेखक - अगरचन्द नाहटा ] की जैनधर्म महान् तीर्थङ्करों की एक साधना परम्परा है । साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका चतुर्विध संघ - तोर्थ स्थापना तीर्थङ्कर करते हैं । साधना के दो मुख्य मार्ग उन्होंने बतलाये हैं, अणगार धर्म और सागार धर्म साधुसाध्वी अणगार धर्म का व श्रावक-श्राविका आगार धर्म का पालन करते हैं अर्थात् साधु-साध्वी पचमहाव्रतधारी होते हैं और श्रावक-श्राविका सम्यक्त्व तथा बारह व्रतों के धारक होते हैं । साधु-साध्वी की आवश्यकताएं सीमित होने से उनका अधिकांश समय स्वाध्याय ध्यान और तप संयम में व्यतीत होता है अतः उन्हें अपनी ज्ञान-वृद्धि, साधुसाध्वियों को वाचना प्रदान, श्रावक-श्राविकादि भव्यों को धर्मोपदेश देने के साथ-साथ ग्रन्थ-निर्माण और लेखन के लिए काफी समय मिल जाता इसलिए अधिकांश जैन साहित्य जैनाचार्यों व मुनियों द्वारा रचित प्राप्त है । पर श्रावक समाज अपनी आजीविका व गृह व्यापार में अधिक व्यस्त रहता है इसलिए उनके रचित साहित्य अल्प परिमाण में प्रास होता है । खरतरगच्छ में भी आचार्यों व मुनियों का जितना विशाल साहित्य उपलब्ध है, उसके अनुपात श्रावकों का रचित साहित्य बहुत ही कम है। फिर भी समय-समय पर जिन विद्वान एव कवि श्रावकों ने प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश राजस्थानी गुजराती हिन्दी आदि में जो रचना की है उनका यथाज्ञात विवरण यहां प्रकाशित किया जा रहा है । में ग्यारहवीं शताब्दी के आचार्य वर्द्धमानसूरि और उनके विद्वान शिष्य जिनेश्वरसूरि से खरतरगच्छ को विशिष्ट परम्परा प्रारम्भ होती है । सं० १४२२ में खरतरगच्छ के Jain Education International रुद्रपल्लीय शाखा के सोमतिलकसूरि रचित सम्यक्त्व सप्ततिका वृत्ति के अनुसार ग्यारहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध तिलकमंजरी नामक अप्रतिम कथा ग्रन्थ के प्रणेता महाकवि धनपाल के पिता जिनेश्वरसूरि के मित्र थे और धनपाल के भ्राता शोभन (चतुर्विंशति के प्रणेता) जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे । इस प्रवाद के अनुसार खरतरगच्छ के प्रथम श्रावक कवि धनपाल माने जा सकते हैं । महाकवि धनपाल की तिलकमंजरी के अतिरिक्त ऋषभपंचाशिका, सच्चउरीय महावीर उत्साह, जिनपूजा व श्रावक-विधि प्रकरण आदि रचनाएं प्राप्त है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तीनों भाषाओं में प्राप्त रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। श्रीजिनदत्तसूरिजी के उल्लेखानुसार श्रीजिनवल्लभसूरिजी कालीदास के सदृश विशिष्ट कवि थे । उनकेभक्त नागोर निवासी धनदेव श्रावक के पुत्र पद्मानंद संस्कृत भाषा के अच्छे कवि थे । उनके रचित वेराग्य शतक प्रकाशित चु है । श्रीजिनदत्तसूरिजी के श्रावक पल्हकवि रचित जिनदत्तसूरि स्तुति की ताड़पत्रीय प्रति जेसलमेर भंडार में प्राप्त है । यह स्तुति हमारे 'ऐतिहासिक जैनकाव्य-संग्रह' में प्रकाशित है। जिनदत्तसूरिजी के अन्य श्रावक कपूरमल ने ब्रह्मचर्यं परिकरणम् ( गा० ४५ ) मणिधारी जिनचन्द्रसूरिजी के समय में बनाया था जिसे हम 'मणिधारी जिनचन्द्रसूरि' की प्रथमावृत्ति में प्रकाशित कर चुके हैं । मणिधारीजी के श्रावक 'लखण' कृत 'जिनचन्द्रसूरि अष्टक' उपर्युक्त ग्रन्थ की द्वितीयावृत्ति में प्रकाशित है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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