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________________ । १६८ 1 और प्रेम व्यवहार रखते थे। योगिराज ने आपकी स्वनामधन्य जैनाचार्य श्रीजिनऋद्धिसूरिजी महागज ने योग्यता, विद्वत्ता, निराभिमानीपन आदि का बड़ा आदर आपको आचार्य पदसे अलंकृत किया। यद्यपि आपको किया। पद-लालसा लेशमात्र भी नहीं थी। सम्मेतशिखर तीर्थ रक्षा आबू से विहार कर मणिसागरजी लोहावट पधारे। के समय २२ वर्ष की उम्र में कलकत्ता संघ ने आचार्य श्रीहरिसागरजी महाराज और आपके गुरु महाराज एक पद देना चाहा तो आपने सर्वथा अस्वीकार कर दिया ही गुरु के शिष्य थे अत: छोटे होने पर भी वे काका गुरु था पर बीकानेर में संघ के आग्रह और आचार्य महाराज थे। दोनों का कभी परस्पर मिलना नहीं हुआ परन्तु की आज्ञा को शिरोधार्य करना पड़ा। आचार्यश्री इन्हें गच्छ का 'प्राण' समझते थे और वर्षों सं० २००३ कोटा चातुर्मास में आपने गुणचंद्र, से बुलाते थे, अत: लोहावट जाकर आचार्य महाराज से भक्तिचन्द्र और गौतमचन्दजी को दीक्षित किया। आचार्य बड़े प्रेम पूर्वक मिले। श्रावकों के आग्रह से फलोदी श्रीजिनरत्नसूरिजी, उपाध्याय लब्धिमुनिजी आदि के पधारे। फलोदी चातुर्मास में कई बालक आपके पास साथ चतुर्मास कर अन्यान्य स्थानों में विचरण करने लगे। धार्मिक ज्ञान प्राप्त करने आते थे उनमें से बस्तीमल मालवाड़ा में आपने उपधान तप करवाया और मालारोपण झाबक ने मित्रों के बीच दीक्षा लेने की प्रतिज्ञा कर ली महोत्सव पर विनयसागरजी को उपाध्याय पद दिया। इसके और वह दीक्षा मणिसागरजी से ही लेने के कृतप्रतिज्ञ डेढ़ महीने बाद ता० ६ फरवरी १९५१ को वे स्वर्गवासी थे। मणिसागरजी ने कभी किसी को दीक्षित नहीं किया हो गये। था पर वस्तीमल के निश्चय के आगे उनको दीक्षा देकर आप बड़े गीतार्थ, सरल और आत्मार्थी थे । २२ घंटे मुनि विनयसागर बनाना पड़ा। आचार्य महाराज और तक का मौन धारण करते और १५-१६ घंटे जप-ध्यान में वीरपुत्र आनंदसागरजी के पारस्परिक मतभेद को मिटा बिताते थे। विनय-वेयावच्च का अद्भुत गुण था, अपने कर गच्छ में ऐक्य स्थापित करने के लिये आपने सत्प्रयत्न गुरुमहाराज की तो सेवा की हो पर साथियों द्वारा त्यक्त करके फलोदी में एक वृहत्सम्मेलन बुला कर संगठन इतर साधुओं की महीनों सेवा की। मलमूत्र उठाया। किया। आप साध्वी और श्राविका समाज से कम परिचय रखते । कवलागच्छीय मुनि ज्ञानसुन्दरजी ने एक पुस्तक विद्वार में आरम्भ आदि न हो इसलिए रसोइया आदि साथ लिखी-'क्या पुरुषों की परिषद् में जैन साध्वी व्याख्यान नहीं रखते। जैनों का घर न होता तो मार्गदर्शक के पास खाखरे दे सकती है ?' इसे पढ़कर आपकी शास्त्रार्थ-प्रवृत्ति जाग आदि लेकर गाँव-गोठ में छाछ आदि लेकर बिहार करते उठी और 'जनध्वज में' 'हाँ !' साध्वी को व्याख्यान देने रहते । विहार में गरम पानी आदि की व्यवस्था-आरम्भ का अधिकार है" शीर्षक लेखमाला २० अंकों में निकाली से बचकर लौंग-त्रिफलादि के प्राशुक जल से संयम साधना जो “साध्वी व्याख्यान निर्णय" नामक पुस्तक के रूप में करते थे। आपको नाम का मोह नहीं था। लम्बे जीवन में हजारों ग्रन्थ आये, अध्ययनकर ज्ञानभंडार आदि में दे दिये भी प्रकाशित हुई। पर अपने नाम से कोई ज्ञानभंडार आदि संस्था नहीं आपने उपधान तप की आवश्यकता महसूस कर छः खोली। निस्पृह, शान्त और साधुता की मूर्ति मणिसागरजी गोली उपधान कराये थे । सं० २००० में बीकानेर में पौष कृष्णा वास्तव में एक मणि ही थे। उनका आदर्श जीवन साधकों १ को उपधान कराया और मालारोपण के अवसर पर के लिए प्रेरणासूत्र बने । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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