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________________ । १५० , ___ वादि-विजेता जिनपतिसूरिजो ने मरोट के नेमिचन्द चलकर दिल्ली सम्राट अलाउद्दीन खिलची के कोश और टंकभंडारी को सं० १२५३ में प्रतिबोध दिया। भंडारीजी के शाल के अधिकारी बने और अपने विविधविषयक अनूभव पुत्र ने जिनपतिसूरिजी से दीक्षाग्रहण की वे उनके पुत्र के आधार से रत्नपरीक्षा सं० १३७२ में पुत्र हेमपाल के जिनेश्वरसूरि बने । श्रीनेमिचन्द्र भंडारो अच्छे विद्वान थे, लिए गा० १३२ में रचा, जिसको हिन्दी अनुवाद और अन्य उनका प्राकृत भाषा में रचित "षष्टिशतक प्रकरण" श्वेता. महत्त्वपूर्ण रचनाओं के साथ हमने अपने "रत्नपरीक्षा' म्बर समाज में ही नहीं, दिगम्बर समाज तक में मान्य ग्रन्थ में प्रकाशित किया है। वास्तुशास्त्र संबन्धी वस्तुसार हुआ। उसकी कई टीकाए और बालावबोध विद्वान नामक रचना भी प्राकृत की २०५ गाथाओं में है जो मुनियों द्वारा रचित उपलब्ध और प्रकाशित हैं। भंडारीजो कन्नाणापुर में सं० १३७२ विजयादशमी को रची गई और को दूसरी रचना जिनवल्लभसूरि गुणवर्णन । गा० ३५ ) है हिन्दी अनुवाद सह पंडित भगवानदासजी ने इसे प्रकाशित और हमारे ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित हो कर दी है। ज्योतिष विषयक गा० २४३ का ज्योतिषसार चकी है। इनके अतिरिक्त एक गाथा का पार्श्वनाथ ग्रन्थ भी सं०१३७२ में रचा। गणित विषयक गणितसार स्तोत्र जेसलमेर भंडार में मिला है। नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ ३११ गाथा का रचा। आपकी __ जिनपतिसूरिजी के दो भक्त श्रावक साह रयण और अन्य महत्वपूर्ण रचना धातोत्पत्ति गा०५७ की है इसे भी कविभत्तउ ने २० गाथाओं के "जिनपतिसूरि धवल गीत हमने अनुवाद सहित यू. पी. हिस्टोरीकल जर्नल में प्रकाबनाये जो हमारे ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रह में प्रका- शित करवा दिया है। शित हैं। भारतीय साहित्य का अद्वितोय ग्रन्थ-द्रव्यपरोक्षा मुद्राजिनेश्वरसूरि के समय श्रावककवि झगड़ने “सम्यक्त्व शास्त्र सम्बन्धी है जो १४६ गाथाओं में सं० १३७५ में माई चौपाई' सं०१.३१ में बनाई जो बड़ौदा से प्रका रचा गया। इसमें भारतीय प्राचीन सिक्कों का बहत हो महत्वशित "प्राचीन गूर्जर काव्य संचय में छप चुकी है। पूर्ण वैज्ञानिक विवरण दिया है जिससे अनेक महत्वपूर्ण श्रीजिनकुशलसूरिजी के गुरु श्रीजिनचन्द्रसूरिज़ी के नवीनतथ्य प्रकाश में आते हैं। उन सिक्कों का माप तोल श्रावक लखमसीह रचित जिनचन्द्रसूरि वर्णनारास ( गा० भी सही रूप में दिया गया है क्योंकि वे स्वयं अलाउद्दीन ४७ ) जेसलमेर भडार से प्राप्त हुआ है, प्रतिलिपि हमारे बादशाह को टंकशाल में अधिकारी रहे थे। अत: उसमें संग्रह में है। अलाउद्दीन के समय तक की मुद्राओं का विशद विवरण दिया उपर्युक्त श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के समय में ठक्कुर फेरू गया है। ठक्कुर फेरू के ग्रन्थों की एकमात्र प्रति हमने नामक बहुत बड़े ग्रन्थकार खरतरगच्छ में हुए। उनकी कलकत्ते के नित्य मणि जीवन जैन लाइब्रेरी के ज्ञानभंडार प्रथम रचना "युगप्रधान चतुष्पदिका" सं० १३४७ में रची में खोज के निकाली थी। इन महत्वपूर्ण ग्रन्थों के सम्बन्ध गई उक्त रचना को हमने संस्कृत छाया व हिन्दी अनुवाद में सर्वप्रथम हमने विश्ववाणी में लेख प्रकाशित किया था। सहित 'राजस्थान भारतो' में प्रकाशित की थी। ठक्कुर स्वर्गीय मुनि कान्तिसागरजी के भी विशाल-भारत में लेख फेरू कन्नाणा निवासी थे यह चतुष्पदिका अपभ्रश के २६ प्रकाशित हुए थे। प्राप्त सभी ग्रन्थों का संकलन करके हमने पद्यों में राजशेखर वाचक के सानिध्य में माघ महीने में पुरातत्त्वाचार्य मुनिजिनविजयजी द्वारा राजस्थान प्राच्य रची गई। ये फेरू, श्रीमाल धांधिया चन्द्र के सुपुत्र थे, आगे विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से "रत्नपरीक्षादि-सप्त-ग्रन्थ संग्रह" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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