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________________ सं० १९६६ में विद्याविजयजी ने "खरतरगच्छ वालों किया। जब टालमटूल होने लगी तो मणिसागरजी ने की पर्युषणादि क्रियायें लौकिक पंचांगानुसार होने से अशा- देवद्रव्य निर्णयः नामक एक पुस्तिका प्रकाशित की। स्त्रीय हैं, इस विषय का विज्ञापन निकाला । राय बद्रीदास इन्दौर में स्थानकवासी प्रसिद्धवक्ता चोथमल जी के शिष्य जी आदि खरतरगच्छ के श्रावकों के आग्रह से उन्होंने इस ने 'गुरु गुणं महिमा' पुस्तिका में मुखवस्त्रिका को लेकर भ्रमपूर्ण प्रचार को रोकने के लिये विद्वतापूर्ण उत्तर देने की विवाद खड़ा किया जिसमें मूर्तिपूजक समाज की निन्दा की प्रार्थमा को तो आपने शास्त्र प्रमाण के हेतु ग्रन्थ सुलभ गई। आचार्य श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी वहां पर थे । करने के लिये लम्बी सूची दी । बद्रीदासजी ने तत्काल पाटण, उपधान चलता था, पूर्णाहुति पर सुमतिसागरजी को खंभात आदि स्थानों से प्राचीन ताडपत्रीय और कागज की महोपाध्याय पद व मणिसागरजी को पन्यास पद दिया हस्तलिखित प्रतियां मंगा कर प्रस्तुत की। मणिसागरजो गया। स्थानकवासियों की ओर से आचार्य श्री के पास न पहल ता एक सारगभित छोटा लेख लिखकर जिनयशः पुस्तक का उत्तर मांगा गया तो शान्तमत्ति आचार्य सूरिजी, शिवजीरामजी, कृपाचन्दजी व प्रतिनी पुण्यश्रीजी महाराज ने मणिसागरजी की ओर साभिप्राय देखा। आदि को भेजा। सबने णिसागरजी के लेख को मत. उन्होंने दूसरे ही दिन विज्ञप्ति f कालकर शास्त्रार्थ के लिए कण्ठ से प्रशंसा को, उसे प्रकाशित करवाया यही लेख आह्वान किया, पर निर्धारित मिती से पूर्व ही मुनि चौथमल आगे चलकर एक हजार पेज के 'वृहत्पर्यषणा निर्णय' जी अपने शिष्य सहित विहार कर गये। मणिसागरजी मन्थरुप में प्रकाशित हुआ। चुप न बैठे उन्होंने आगम प्रमाण सह आगमानुसार ___कलकत्ते से विचरते हुए बम्बई पधारने पर कृपाचन्द्र- मुँहपत्ति का निर्णय और जाहिर उद्घोषणा न० १-२-३ सरिजी ने सुमतिसागरजी को उपाध्याय पद व मणिसागरजी पुस्तक लिखकर प्रकाशित करवा दी। को पण्डित पद से विभूषित किया। सं० १६७. में तपा- वर्तमान काल में हिन्दी भाषा में जैनागमों के प्रकाशन गच्छ के कई महारथी बम्बई में आ विराजे और तपागच्छ से जनता का विशेष उपकार हो सकता है, इस उद्दश्य से की ओर से कलकत्ते वाले विवाद को उठाने के साथ साथ आपने कोटा में जैन प्रिण्टिंग प्रेस को स्थापना करवाई प्रभु महावीर के षट् कल्याणक मान्यता का भी विरोध और इसके द्वारा ७-८ आगमों के हिन्दी अनुवाद प्रकाकिया । दोनों ओर से इस विवाद में चालोसों पर्चे निकले। शित करवाये। गुरुजी की वृद्धावस्था और प्रकाशनादि मणिसागरजी द्वारा शास्त्रार्थ का आह्वान करने पर कोई के लिए आप १४ वर्ष तक कोटा के आस-पास रह । उनका सामना न कर सका जिससे सर्वत्र खरतरगच्छ का प्रकाशन व्यवस्था आदि बन्धन उनके त्यागी जीवन के सिक्का जम गया और कोई खरतरगच्छ की मान्यता को लिये बाधक था, अत: सब कुछ छोड़कर निकल पड़े और अशास्त्रीय कहने का दुस्साहस न कर सका। केशरियाजी यात्रा करके आबू में योगिराज शांतिविजयजी जैन समाज में मणिसागरजी अपने पाडित्य और महाराज के पास गये। ये उनके पास एक वर्ष रहे, शास्त्रार्थ के लिये प्रसिद्धि पा चुके थे। देवद्रव्य के विषय रात्रि में घण्टों एकान्त वार्तालाप करते, गुप्त साधना को लेकर सागरानन्दसूरिजी और विजयधर्मसूरिजी के करते। योगिराज ने आपको उपाध्याय पद से अलंकृत मतभेद-विवाद चलता था। मणिसागरजी भी शास्त्र चर्चा किया। मणिसागरजी में यह विशेषता थी कि प्रतिके लिये इन्दौर पधारे । और विजयधर्मसूरिजी से पत्र व्यवहार पक्षियों की कड़ी आलोचना करते हुए भी शिष्ट भाषा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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