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________________ डॉ. मारुतिनन्दन तिवारी एवं डॉ. कमलगिरि ज्ञान और पवित्रता की देवी होने के कारण ही सरस्वती के साथ हंसवाहन और करों में पुस्तक, अक्षमाला, वरदमुद्रा तथा जलपात्र दिखाये गये। जैन धर्म में सरस्वती पूजन की प्राचीनता व्याख्याप्रज्ञप्ति (लगभग दूसरी-तीसरी शती ई०), शिवशर्माकृत पक्षिकसूत्र (लगभग ५वीं शती ई०), सिंहसूरि क्षमाश्रमणकृत द्वावशारण्यचक्रवत्ति (लगभग ६७५ ई०), हरिभद्र सूरिकृत पंचाशक (लगभग ७७५ ई०) और संसार-धावानल-स्तोत्र, महानिशीथसूत्र (लगभग ९वीं शती ई०) तथा बप्पट्टि सूरिकृत शारदास्तोत्र (लगभग ८वीं शती ई० का तीसरा चरण) के साहित्यिक सन्दर्भो एवं पुरातात्विक उदाहरणों में मथुरा से प्राप्त प्राचीनतम कुषाणकालोन (१३२ ई० या १४९ ६०) सरस्वती प्रतिमा से समझी जा सकती है। जैन मन्दिरों, विशेषतः पश्चिम भारत के मन्दिरों, पर सरस्वती के अनेकशः निरूपण से भी सरस्वती पूजन को लोकप्रियता सिद्ध होती है। श्वेताम्बर परम्परा में ज्ञानपंचमी और दिगम्बर परम्परा में श्रुतपंचमी का आयोजन भी सरस्वती की लोकप्रियता का ही साक्षी है। जैनों में प्रचलित श्रुतदेवता, तपस, श्रुतस्कन्ध और श्रुतज्ञान व्रत भी सरस्वती से ही सम्बन्धित हैं।' दिगम्बर सम्प्रदाय की अपेक्षा श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सरस्वती पूजन अधिक लोकप्रिय था। यही कारण है कि बादामी, ऐहोल एवं एलोरा जैसे दिगम्बर जैन स्थलों पर सरस्वती की मूर्तियाँ नहीं बनीं। पूर्व मध्यकाल में श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सरस्वती को साधना शक्ति के रूप में भी की गई, जिसमें आगे चलकर तंत्र का भी प्रवेश हुआ। प्रभाचन्द्राचार्यकृत प्रभावकचरित (लगभग १२५० ई०), मेरुतुंगाचार्य कृत प्रबन्धचिन्तामणि (लगभग १३०५-०६ ई०) राजशेखरसूरिकृत प्रबन्धकोश (लगभग १३४८-४९ ई०) तथा जिनमण्डनकृत कुमारपालचरित (लगभग १४३५-३६ ई०) जैसे मध्यकालीन जैन ग्रन्थों में जैन भिक्षुओं एवं बप्पभट्टिसूरि, हेमचन्द्र, मल्लिषेण, मल्लवादिसूरि (द्वितीय) तथा नरचन्द्रसूरि जैसे जैन आचार्यों द्वारा सरस्वती की तांत्रिक साधना के फलस्वरूप विभिन्न विद्यापरक शक्तियां प्राप्त करने के प्रचुर उल्लेख हैं। सरस्वती की मांत्रिक एवं तान्त्रिक साधनाओं से असाधारण कवि और वादी बनने के साथ ही अन्य कई प्रकार की विद्या शक्तियां भी प्राप्त होती थीं। हेमचन्द्र ने अलंकारचूडामणि में ऐसे सारस्वत मंत्रों को पूर्ण मान्यता भी दी है। प्रतिद्वन्द्वियों पर विजय करने के लिए हेमचन्द्र तथा अन्य कई जैन आचार्यों ने ब्राह्मी देवी की कृपा प्राप्त करने के उद्देश्य से ब्राह्मीदेश (कश्मीर) की यात्रा भी की थी।४ प्रबन्धकाव्यों में गोपगिरि के शासक आमराज के दरबार के बौद्ध भाषाकार वर्धनकुंजर को पराजित करने के लिए जैन आचार्य बप्पभट्टिसूरि द्वारा सरस्वती की साधना करने का विस्तृत १. शाह, य० पी०, पूर्व निर्दिष्ट, पृ० १९६. २. चतुर्विशतिका (बप्पट्टिसूरि कृत)-परिशिष्ट शारदास्तोत्र ११; मैनस्तोत्रसंदोह (अमरशत नतांगिः कामधेनु कवीनाम्।. खण्ड-१, सं० अमरविजयमुनि, अहमदाबाद, १९३२, पृ. ३४६ ३. अलंकारचूडामणि १.४ (जी० ब्यूहलर के दि लाईफ ऑव हेमचन्द्राचार्य से उद्धृत, सिंघी जैन ग्रन्थमाला-११, शांतिनिकेतन, १९३६, पृ० १०) ४. जी० व्यूहलर, पूर्व निर्दिष्ट, पृ० १०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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