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________________ मैनतंत्र साधना में सरस्वती १५९ विद्याओं के सन्दर्भ प्रारम्भिक आगम ग्रन्थों में भी हैं। पांचवी शती ई० तक जैन धर्म में इनका एक निश्चित स्थान बन चुका था। विमलसूरिकृत पउमचरिय (लगभग ४७३ ई०) में गरुडा ( कालान्तर में चक्रेश्वरी ), सिंहवाहिनी ( अम्बिका ), बहुरूपा ( बहुरूपिणी ), निद्राणी, सिद्धार्था, सर्वकामा, महासुन्दरी जैसी कई विद्याओं के सन्दर्भ हैं। विभिन्न अवसरों पर राम, लक्ष्मण, रावण आदि ने इनकी साधना की थी। कोट्यार्यवादी गणि ने भी जैन तंत्र में प्रचलित कुछ विद्याओं के सन्दर्भ दिये हैं। जैन परम्परा में विद्याओं की कुल संख्या ४८ हजार बतायी गयी है। इनमें से १६ विद्याओं को लेकर आठवीं शती ई० में महाविद्याओं की सूची नियत हुई। इन्हीं महाविद्याओं में से कुछ को (रोहिणी, प्रज्ञप्ति, काली, अप्रतिचक्रा, महाकाली, गौरी, वैरोट्या, मानसी, वज्रशृङ्खला, ज्वालामालिनी तथा महामानसी) ८वीं-९वीं शती ई० में २४ यक्षियों की सूची में भी सम्मिलित किया गया । देवगढ़ के शान्तिनाथ मन्दिर (सं० १२, ८६२ ई०) पर निरूपित २४ यक्षियों के समूह में इन महाविद्याओं (अप्रतिचक्रा, वज्रशृङ्खला, नरदत्ता, महाकाली, वेरोट्या, अच्छुप्ता तथा महामानसी) को स्पष्टतः पहचाना जा सकता है। मध्यकाल की लोकप्रिय विद्याओं में कुष्माण्डी (या अम्बिका), पद्मावती, वेरोट्या और ज्वालामालिनी सर्वप्रमुख थीं। जैन धर्म में श्रत विद्या के रूप में सरस्वती की आराधना अत्यन्त प्राचीन है। द्वादशांग जैन ग्रन्थों को श्रुतदेवता के अवयव और १४ पूर्व ग्रन्थों को उनका आभूषण बताया गया है। जैन धर्म में सरस्वती की साधना अज्ञानता तथा दुःखों को दूर करने के लिए की गयी है। ब्राह्मण धर्म में सरस्वती को प्रारम्भ से ही विद्या के साथ विभिन्न ललितकलाओं (संगीत) की देवी भी माना गया पर जैन धर्म में लगभग नवीं शती ई० तक सरस्वती केवल विद्या की ही देवी रहीं। यही कारण है कि १०वीं शती ई० के पूर्व उनके संगीत या अन्य ललितकलाओं से सम्बन्धित होने के संकेत साहित्य या मूर्त रूपों में हमें नहीं मिलते हैं। १. सूत्रकृतांग (२.२.१५-पी० एल० वैद्य-सं०, १, १९२८, पृ० ८७) एवं नायाधम्मकहाओ (१६, १२९-एन० वो० वैद्य-सं०, पृ० १८९) में उत्पतनी, वेताली, गौरी, गन्धारी, जम्भणि, स्तम्भनी, अन्तर्धानी एवं अन्य कई विद्याओं के नामोल्लेख मिलते हैं। पउमचरिय ७. ७३-१०७, ७.१४४-४५, ५९.८४, ६७.१-३ : एक स्थल पर पउमचरिय में राम के साथ युद्ध के प्रसङ्ग में रावण द्वारा ५५ विद्याओं की सामहिक साधना की भी उल्लेख है (७.१३५-४४) विशेषावश्यक भाष्य पर कोट्यार्यवादी र्गाण की टीका में भी अम्बकुष्माण्डी, महारोहिणी, महापुरुषदत्ता एवं महाप्रज्ञप्ति विद्याओं के नामोल्लेख है (गाथा ३५९०) संघदासगणि (ल. ७०० ई०) के वसुदेवहिण्डी एवं हेमचन्द्रसूरि (१२वीं शती ई० का मध्य) के त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्र में विद्याओं की कुल संख्या ४८०.. बताई गई है। दिगम्बर ग्रन्थकार मल्लिषेण एवं इन्द्रनन्दि ने क्रमशः भैरव पद्मावतीकल्प (ल० १०४७ ई०) और ज्वालिनीमाता (ल० ९३९ ई.) की रचना की थी। द्वादशांगश्रुतदेवाधिदेवते सरस्वत्यै स्वाहा, निर्वाणकलिका, पृ० १७ : द्रष्टव्य शाह, यू० पी०, आइकनोग्राफी ऑव जैन गाडेस सरस्वती, जर्नल ऑव यूनिवर्सिटी ऑव बॉम्बे, खण्ड-१०, (न्यू सिरीज), भाग-२, सितम्बर १९४१, पृ० १९६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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