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________________ १५४ डा० मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी एवं डा०कमलगिरि क्रम की मर्यादा का निर्वाह किया है। ज्ञातव्य है कि ये तीनों ही तीर्थकर मुनिसुव्रत के पश्चात्कालीन हैं। राम द्वारा पद्मप्रभ और चन्द्रप्रभ तथा रावण द्वारा शान्तिनाथ मन्दिरों में पूजन के कई सन्दर्भ मिलते हैं। इनके अतिरिक्त हरिषेण ( दसवें चक्रवर्ती ), बालि, विनयवती ( सामान्य-महिला ) एवं शत्रुघ्न द्वारा भी जिन मन्दिरों के निर्माण, पुनरुद्धार तथा मूर्तिपूजन के उल्लेख हैं । २ पउमचरिय के उल्लेख से प्रकट है कि तीर्थकर मूर्तियाँ अष्टप्रातिहार्यों सहित सामान्यतः ध्यानमुद्रा में सिंहासन पर विराजमान होती थीं। विमलसूरि ने जिनेन्द्रों की प्रतिमाओं को सर्वांगसुन्दर बनाने का विधान किया है। तीर्थंकरों के साथ यक्ष और यक्षी के निरूपण की कोई चर्चा नहीं है। केवल एक स्थल पर राजगृह के यक्ष मन्दिर का उल्लेख आया है। राम और लक्ष्मण की अपेक्षा पउमचरिय में रावण के अधिक उल्लेख हैं। पउमचरिय एवं परवर्ती ग्रन्थों में रामकथा के अनेकशः उल्लेख के बाद भी जैन स्थलों पर राम का मूर्त अंकन नहीं हुआ। मूर्त अंकन का एकमात्र उदाहरण खजुराहो के पाश्वनाथ मन्दिर (ल. ९५०-७० ई०) पर है। इस मन्दिर की उत्तरी भित्ति पर राम-सीता और हनुमान की मूर्तियाँ हैं जिसमें चतुर्भुज राम, सीता सहित आलिंगन मुद्रा में खड़े हैं और समीप ही कपिमुख हनुमान की भी आकृति बनी है। राम का एक दक्षिण कर पालित मुद्रा में हनुमान के मस्तक पर स्थित है। इस मन्दिर के शिखर पर भी दक्षिण की ओर रामकथा का एक दृश्य उत्कीर्ण है।५ दृश्य में क्लान्तमुख सीता को अशोकवाटिका में आसीन और कपिमुख हनुमान से राम की मुद्रिका प्राप्त करते हुए दिखाया गया हैं। पउमचरिय में देवताओं के चतुर्वर्गों ( भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक ) का अनुल्लेख आगम ग्रन्थों में उनकी चर्चा को दृष्टिगत करते हुए सर्वथा आश्चर्यजनक है | लोकपालों (परवर्ती दिक्पालों) में भी केवल पाँच ही के नामोल्लेख मिलते हैं। एक स्थान पर लोकपालों से घिरे इन्द्र के ऐरावत गज पर आरूढ़ होने तथा इन्द्र द्वारा ही शशि (सोम), वरुण, कुबेर और यम की क्रमशः पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में स्थापना का उल्लेख है। पउमचरिय में १. पउमचरिय ७७.२७, ६७.४२. २. हरिषेण द्वारा काम्पिल्यपर, विनयवती द्वारा गोवर्धन ग्राम तथा शत्रन द्वारा मथुरा में जिन मन्दिर निर्माण के उल्लेख मिलते हैं। -पउमचरिय ८.२०९; २०.११७; ८९.५८; ९.३; ७४-७६. ३. पउमचरिय ४४.११ ४. पउमचरिय ८२.४६ ५. तिवारो, मारुति नन्दन प्रसाद, एलिमेन्ट्स ऑव जन आइकनोग्राफी, वाराणसी, १९८३, पृ० ११५-१६ ६. सोऊण रक्खसवलं, समागयं लोगपालपरिकिण्णो । एरावणमारूढो, नयराओ निग्गओ इन्दो ।।-पउमचरिय ७.२२, ठविओ पुव्वाएँ ससी, दिसाएँ वरुणो य तत्थ अवराए । उत्तरओ य कुबेरो, ठविओ च्चिय दक्खिणाएँ जमो ॥-पउमचरिय ७.४७; एक स्थल पर इन्द्र द्वारा पाँचवें दिक्पाल के रूप में वैश्रवण को प्रतिष्ठित करने का भी उल्लेख है। -पउमचरिय ७.५६-५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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