SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विमलसूरिकृत पउमचरिय में प्रतिमा विज्ञान-परक सामग्री १५३ में बनती थी। जिन-बिम्ब-युक्त रत्नजटित मुद्रिका, अंगूठे-बराबर जिन प्रतिमा तथा रावण द्वारा लघुकाय जिन प्रतिमा के सर्वदा साथ रखने से सम्बन्धित विभिन्न सन्दर्भ जिन-प्रतिमा-पूजन की लोकप्रियता के साक्षी हैं। पउमचरिय में विभिन्न स्थलों पर ऋषभनाथ एवं महावीर तीर्थंकरों के साथ सामान्यतः पांच (सिंहासन, छत्र, चामर, अशोक वृक्ष, भामण्डल )२ या सात ( आसन, छत्र, चामर, भामण्डल, कल्पवृक्ष, दुन्दुभिघोष, पुष्पवर्षा )' प्रातिहार्यों के उल्लेख मिलते हैं। किन्तु दो स्थलों पर अजितनाथ और महावीर के साथ महाप्रातिहार्यों की संख्या आठ भी बताई गई है। ज्ञातव्य है कि गुप्तकाल तक जिनमूर्तियों में अष्टप्रातिहार्यों का नियमित रूप से अंकन होने लगा था। पउमरिय में जिन मूर्तियों एवं मन्दिरों के निर्माण के भी प्रचुर सन्दर्भ हैं। एक उल्लेख के अनुसार मथुरा में सात जैन मुनियों ने शत्रुघ्न को जिन मन्दिरों के निर्माण तथा घर-घर में जिन प्रतिमाओं की स्थापना का निर्देश दिया था। एक स्थान पर कहा गया है कि अंगठे के आकार की जिन प्रतिमा भी महामारी का विनाश करने में सक्षम है। संभवतः घर-घर में जिन प्रतिमा की स्थापना का सन्दर्भ इसी सुरक्षात्मक दृष्टिकोण से प्रेरित था। विदेह, साकेतपुरी, मथुरा, दशपुर, लंका, पोतनपुर, कैलाशपर्वत, सम्मेतशिखर एवं इसी प्रकार अन्य कई स्थलों पर जिन मन्दिरों (या चैत्यों ) की विद्यमानता के उल्लेख हैं । मिथिला, लंकापुरी ( २ मन्दिर ), दशपुर और साकेतपुरी के मन्दिर क्रमशः ऋषभनाथ, पद्मप्रभ ( और शान्तिनाथ ), चन्द्रप्रभ एवं मुनिसुव्रत को समर्पित थे। इस प्रकार पउमचरिय में केवल ऋषभनाथ, पद्मप्रभ, चन्द्रप्रभ, शान्तिनाथ एवं मुनिसुव्रत की ही मतियों एवं मन्दिरों के उल्लेख मिलते हैं। अन्तिम तीन तीर्थंकरों-नेमिनाथ पार्श्वनाथ एवं महावीर के मन्दिरों एवं मूर्तियों का सन्दर्भ न देकर रचनाकार ने ऐतिहासिक काल१. पउमचरिय ३३.५६-५७; १०.४५-४६ २. पउमचरिय २.५३ ३. उप्पज्जइ आसणं जिणिन्दस्स । छत्ताइछत्त चामर, तहेव भामण्डलं विमलं ।। ___ कप्पदुमो य दिव्वो, दुन्दुहिघोसं च पुष्फबरिसं च । सब्वाइसयसमग्गो, जिणवरइड्ढि समणुपत्तो ।। -पउमचरिय ४.१८-१९ ४. इस सूची में दिव्यध्वनि का अनुल्लेख है । ५. ""अट्ठमहापाडिहेरपरियरिओ । विहरइ जिणिन्दभाणू, बोहिन्तो भवियकमलाई। -पउमचरिय २.३६ ""चोत्तीसं च अइसया, अट्ठ महापाडिहेरा य ॥ -पउमचरिय ५.६० ६. चाभरघर, प्रभामण्डल एवं देव दून्द भि का उल्लेख मिलता है। ७. पउमचरिय ८९.५०-५१ ८. पउमचरिय ८९.५३-५४ ९. पउमचरिय २८.३९; ३३.१२६; ७७.२५,२७; ६६.२६; ६७.३६, ७७.३; ८९.२. २० For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy