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________________ अङ्ग आगमों के विषयवस्तु-सम्बन्धी उल्लेखों का तुलनात्मक विवेचन ७५ स्थानाङ्ग में १० अध्ययन गिनाए हैं और नन्दी में ४५ अध्ययन | समवायाङ्ग में अध्ययनों का उल्लेख तो नहीं है परन्तु उसके ४५ उद्देशन और समुद्देशन काल बतलाए हैं जिससे इसके ४५ अध्ययनों की कल्पना को जा सकती है। समवायाङ्ग के ५४.२९२वें समवाय में कहा है कि भगवान् महावीर ने एक दिन में एक आसन से बैठे हुए ५४ प्रश्नों के उत्तर रूप व्याख्यान दिए । यहाँ कथित ५४ संख्या चिन्त्य है। समवायाङ्ग, नन्दी और दिगम्बर ग्रन्थों में पद-संख्या भिन्न-भिन्न है। दिग० ग्रन्थों के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इसमें आक्षेप-विक्षेप के जनक प्रश्नों के उत्तर थे तथा लौकिक एवं वैदिक शब्दों का नयानुसार शब्दार्थ-निर्णय था । स्थानाङ्ग में कथित क्षौमिक प्रश्न आदि से भी इसकी पुष्टि होती है। सम्भवतः इसके ऋषिभाषित, आचार्यभाषित और महावीरभाषित अंश स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में प्रसिद्ध हैं। ११-विपाकसूत्र (क) श्वेताम्बर ग्रन्थों में १. स्थानाङ्ग में'-कर्मविपाक के १० अध्ययन हैं-मृगापुत्र, गोत्रास, अण्ड, शकट, ब्राह्मण, नन्दिषेण, शौरिक, उदुम्बर, सहस्रोद्दाह, आमरक और कुमारलिच्छवी । २. समवायाग में२–दुष्कृत और सुकृत कर्मों के फलों का वर्णन होने से यह दो प्रकार का है-दुःखविपाक और सुखविपाक । प्रत्येक के १०-१० अध्ययन हैं। दुःखविपाक में दुष्कृतों के नगरादि का वर्णन है तथा सुखविपाक में सुकृतों के नगरादि का वर्णन है । प्राणातिपात, असत्यवचन आदि पाप कर्मों से नरकादि गतिप्राप्तिरूप दुःखविपाक होता है। शील, संयम आदि शुभ भावों से देवादिगति-प्राप्ति ( परम्परया मोक्ष-प्राप्ति ) रूप सुखविपाक होता है। ये दोनों विपाक संवेग में कारण हैं। अङ्गों के क्रम में यह ग्यारहवां अङ्ग है। इसमें २० अध्ययन, २० उद्देशनकाल, २० समुद्देशनकाल और संख्यात लाख पद हैं। शेष वाचनादि का कथन आचाराङ्गवत् है । ३. नन्दीसूत्र में—प्रायः समवायाङ्गवत् कथन है। इसमें दो श्रुतस्कन्ध तथा संख्यात-सहस्र पद कहे हैं। ४. विधिमार्गप्रपा में - इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं । प्रथम दुःखविपाक श्रुतस्कन्ध में १० अध्ययन हैं-मृगापुत्र, उज्झितक, अभग्नसेन, शकट, बृहस्पतिदत्त, नन्दिवर्धन, उंबरिदत्त, शौरिकदत्त, देवदत्ता और अंजु । द्वितीय सुखविपाक श्रुतस्कन्ध के १० अध्ययन हैं-सुबाहु, भद्रनन्दि, सुजात, सुवासव, जिनदास, धनपति, महाबल, भद्रनन्दि, महाचन्द्र और वरदत्त । १. स्थानाङ्गसूत्र १०.१११ । २. समवायाङ्गसूत्र ५५०-५५६ । ३ नन्दीसूत्र ५६ । ४. विधिमार्गप्रपा पृ० ५६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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