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________________ डा० सुदर्शन लाल जैन (ख) दिगम्बर ग्रन्थों में १. तत्त्वार्थवार्तिक में'-इसमें पुण्य और पाप कर्मों के फल ( विपाक ) का विचार किया गया है। २. धवला में-इसमें १८४००००० पद हैं जिनमें पुण्य और पाप कर्मों के विपाक (फल) का वर्णन है। ३. जयघवला में ३-इसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय लेकर शुभाशुभ कर्मों के विपाक का वर्णन है। ४. अङ्गप्रज्ञप्ति में-धवला-जयधवलावत् कथन है । (ग) वर्तमानरूप इसमें ज्ञाताधर्मकथावत् उपोद्घात है । विपाक का अर्थ है "कर्मफल" । यहाँ इन्द्रभूति गौतम संसार के प्राणियों को दुःखी देखकर भगवान् महावीर से उसका कारण पूछते हैं । भगवान् महावीर पापरूप और पूण्यरूप कर्मों के फलों का कथन करके धर्मोपदेश देते हैं। इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं(१) दुःखविपाक-इसमें १० अध्ययन हैं जिनमें क्रमशः मगात्र, उज्झितक (कामध्वजा), अभग्नसेन ( चोर ), शकट, बहस्पतिदत्त ( पुरोहितपूत्र ). नन्दिवर्धन, उम्बरदत्त ( वैद्य ), शोरिक (सोरियदत्त मछलीमार ), देवदत्ता और अंजु की कथाएं हैं। इनमें पाप कर्मों के परिणामों का कथन है। (२) सुखविपाक-इसमें १० अध्ययन हैं जिनमें क्रमशः सुबाहुकुमार, भद्रनन्दी, सुजातकुमार, सुवासवकुमार, जिनदास, धनपति, महाबल, भद्रनन्दी, महाचन्द्र और वरदत्तकुमार की कथाएँ हैं । इनमें पुण्यकर्मों के परिणामों का कथन है । यहाँ इतना विशेष है कि दुःखविपाक में असत्यभाषी और महापरिग्रही की तथा सुखविपाक में सत्यभाषो और अल्पपरिग्रही की कथायें नहीं हैं जो चिन्त्य हैं । (घ) तुलनात्मक विवरण -- दिग० और श्वे. दोनों के उल्लेखों से इतना तो निश्चित है कि इसमें कर्मों के दुःखविपाक और सुखविपाक का विवेचन रहा है। यद्यपि इसमें कर्मों के दुःखविपाक और सुखविपाक का ही विवेचन है परन्तु इसकी मूलरूपता चिन्त्य है । समवायाङ्ग, नन्दी और विधिमार्गप्रपा के अनुसार अध्ययनों की तो संगति बैठ जाती है परन्तु समवायाङ्ग में इसके दो श्रुतस्कन्धों का उल्लेख नहीं है। स्थानाङ्ग में १० अध्ययन ही बतलाए हैं। यद्यपि वहाँ केवल कर्मविपाक शब्द का प्रयोग है, परन्तु वह सम्भवतः सम्पूर्ण विपाकसूत्र का प्रतिनिधि है अन्यथा दुःखविपाक और सुखविपाक के १०-१० अध्ययन पृथक-पृथक् गिनाए जाते । वर्तमान दुःखविपाक के अध्ययनों के साथ स्था १. तत्त्वार्थ० १.२०, पृ० ७४ । २. धवला १.१.२, पृ० १०८ । ३. जयधवला गाथा १, पृ० १२० । ४. अङ्गप्रज्ञप्ति गाथा ६८-६९, पृ० २७०-२७१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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