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________________ डा० सुदर्शन लाल जैन ४. विधिमार्गप्रपा में'-इसमें १ श्रुतस्कन्ध है। इसके १० अध्यायों के क्रमशः नाम हैं-हिंसाद्वार, मृषावादद्वार, स्तेनितद्वार, मैथुनद्वार, परिग्रहद्वार, अहिंसाद्वार, सत्यद्वार, अस्तेनितद्वार, ब्रह्मचर्यद्वार और अपरिग्रहद्वार । यहाँ कोई ५-५ अध्ययनों के दो श्रुतस्कन्ध भी बतलाते हैं। (ख) दिगम्बर ग्रन्थों में १. तत्त्वार्थवातिक में २-- "प्रश्नानां व्याकरणं प्रश्नव्याकरणम्"। इसमें युक्ति और नयों के द्वारा अनेक आक्षेप और विक्षेपरूप प्रश्नों के उत्तर हैं जिनमें सभी लौकिक और वैदिक अर्थों का निर्णय किया गया है। २. धवला में-इसमें ९३१६००० पद हैं जिनमें आक्षेपिणी (तत्त्वनिरूपिका) विक्षेपणी, (स्वसमयस्थापिका), संवेदनी (धर्मफलनिरूपिका) और निवेदनी (वैराग्यजनिका) इन चार प्रकार की कथाओं का वर्णन है। आक्षेपिणी आदि कथाओं का स्वरूप तथा कौन किस प्रकार की कथा का अधिकारी है ? इसका भी यहाँ उल्लेख किया गया है। अन्त में प्रश्न के अनुसार हत, नष्ट, मुष्टि, चिन्ता, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवित, मरण, जय, पराजय, नाम, द्रव्य, आयु और संख्या का भी प्ररूपण है। ३. जयधवला में --पदसंख्या को छोड़कर शेष कथन प्रायः धवलावत् है । ४. अङ्गप्रज्ञप्ति में - इसका विवेचन धवलावत है। (ग) वर्तमान रूप इसमें पांच आस्रवद्वार और पांच संवरद्वाररूप १० अध्ययन हैं जिनमें क्रमशः हिंसा, झूठ, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य, परिग्रह, अहिंसा, सत्य, अदत्ताग्रहण, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का वर्णन है । उपोद्घात ज्ञाताधर्मकथा की ही तरह है । इसमें प्रश्नों के व्याकरण ( उत्तर ) नहीं हैं । (घ) तुलनात्मक विवरण उपलब्ध आगम सर्वथा नवीन रचना है क्योंकि इसमें न तो ग्रन्थ के नामानुसार प्रश्नोत्तर शैली है और न उपलब्ध प्राचीन उल्लेखों से कोई साम्य है। वर्तमान रचना केवल विधिमार्गप्रपा के वक्तव्य से मेल रखती है। विधिमार्गप्रपा बहुत बाद की रचना है जो उपलब्ध आगम को दृष्टि में रखकर लिखी गई है अन्यथा यहाँ नन्दी को आधार होना चाहिए था। स्थानाङ्ग में जिन १० अध्ययनों का उल्लेख है उनसे वर्तमान १० अध्ययनों का दूर तक कोई साम्य नहीं है। नन्दी और समवायाङ्ग में जिन विद्यातिशयों का उल्लेख है वे भी नहीं हैं। इस सन्दर्भ में वृत्तिकार अभयदेव का यह कथन कि "अनधिकारी चमत्कारी-विद्यातिशयों का प्रयोग न करें। अतः उन्हें हटा दिया गया है", समुचित नहीं है क्योंकि कुछ तो अवशेष अवश्य मिलते । उपोद्घात भी इसे नूतन रचना सिद्ध करता है। १. विधिमार्गप्रपा, पृ० ५६ । २. तत्त्वार्थ १.२०, पृ० ७३-७४ । ३. धवला १.१.२, पृ० १०५-१०८ । ४. जयधवला गाथा १, पृ० ११९ । ५. अङ्गप्रज्ञप्ति गाथा ५६-६७, पृ० २६८-२७० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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