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________________ ६२ डा० सुदर्शन लाल जैन ५-व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) (क) श्वेताम्बर ग्रन्थों में १. समवायाङ्ग में'–व्याख्याप्रज्ञप्ति में नानाविध देव, नरेन्द्र, राजर्षि तथा अनेक संशयग्रस्तों के प्रश्नों के भगवान् जिनेन्द्र ने विस्तार से उत्तर दिये हैं। द्रव्य, गुण, पर्याय, क्षेत्र, काल, प्रदेश, परिणाम, यथास्थितिभाव, अनुगम, निक्षेप, नय, प्रमाण और सुनिपुण उपक्रमों के विविध प्रकारों के द्वारा प्रकट रूप से प्रकाशक, लोकालोक का प्रकाशक, संसार-समुद्र से पार उतारने में समर्थ, सुरपति से पूजित, भव्य जनों के हृदय को आनन्दित करने वाले, तमःरज-विध्वंशक, सुदष्टदीपकरूप, ईहामति-बुद्धिवर्द्धक, पूरे (अन्यून) ३६ हजार व्याकरणों (प्रश्नों के उत्तर) को दिखाने से व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्रार्थ के अनेक प्रकारों का प्रकाशक, शिष्यों का हितकारक और गुणों से महान् अर्थ वाला है। स्वसमयादि का कथन पूर्ववत् है। अंगों के क्रम में यह ५वां अंगग्रन्थ है। इसमें १ श्रुतस्कन्ध, १०० से कुछ अधिक अध्ययन, १० हजार उद्देशक, १० हजार समुदेशक, ३६ हजार प्रश्नों के उत्तर तथा ८४ हजार पद हैं। वाचनादि का कथन आचाराङ्गवत् है । यहाँ व्याख्याप्रज्ञप्ति के लिए 'विवाहपन्नत्तो" और "वियाहपन्नत्ती" दोनों पदों का प्रयोग हआ है। इसके लिए "भगवती" पद का भी प्रयोग किया गया है तथा यहाँ भी इसके ८४ हजार पद बतलाये गये हैं। २. नन्दीसूत्र में व्याख्याप्रज्ञप्ति में जीवादि का कथन है (पूर्ववत्) । समवायांगोक्त "नानाविध देवादि०" यह अंश यहाँ नहीं है। यहाँ केवल 'विवाहपन्नत्ती' शब्द का प्रयोग हुआ है। पद परिमाण दो लाख ८८ हजार बतलाया है । शेष कथन समवायाङ्गवत् है।। ३. विधिमार्गप्रपा में व्याख्याप्रज्ञप्ति के लिए 'भगवती" और विवाहपन्नती" दोनों शब्दों का प्रयोग एक साथ किया गया है । इसमें श्रुतस्कन्ध नहीं हैं। 'शतक' नामवाले ४१ अध्ययन हैं जो अवान्तर शतकों के साथ कुल १३८ शतक हैं। इसके १९२३।१९३२ उद्देशक बतलाये हैं। (ख) दिगम्बर ग्रन्थों में - १. तत्त्वार्थवार्तिक में - "जीव है या नहीं है" इत्यादि रूप से ६० हजार प्रश्नों के उत्तर व्याख्याप्रज्ञप्ति में हैं। १. समवा० सूत्र ५२६-५२९; ८४-३९५ । २. समवा० सूत्र ८४-३९५ । ३. नन्दीसूत्र ५० । ४. विधिमार्गप्रपा, पृ० ५३-५४ । ५. एकतालीस शतकों का १३८ शतकों में विभाजन-३३ से ३९ तक के शतक १२-१२ शतकों के समवाय होने से (७४ १२ = )८४ शतक, ४०वां शतक २१ शतकों का समवाय है. शेष १ से ३२ तक तथा ४१वाँ प्रत्येक १-१ शतक होने से ३३ शतक हैं। ( कुल ८४ + २१ + ३३ = १३८) ६. तत्त्वार्थ० १.२०, पृ० ७३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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